________________
[334] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन ऊर्ध्वगति भी होती है इसलिए वह एकांत रूप से गुरु द्रव्य नहीं है। इसी प्रकार व्यवहार नय से दीपक की लौ को लघु द्रव्य कहा है, लेकिन हस्तादि से दबाने पर लौ की अधोगति भी होती है इसलिए एकांत लघु द्रव्य भी नहीं है। परंतु निश्चय नय से लोक में औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस वर्गणा
और पृथ्वी, पर्वतादि अथवा जो स्थूल वस्तु है वे सभी गुरुलघु द्रव्य हैं और शेष भाषा, मन, श्वासोच्छ्वास, कार्मण आदि परमाणु, व्यणुक और आकाश आदि सभी वस्तुएं अगुरुलघु हैं। आगम में भी ये दो ही द्रव्य स्वीकार किये गए हैं, जैसेकि भगवतीसूत्र श. 12 उ.5 में बादर को गुरुलघु और सूक्ष्म पुद्गल स्कंध तथा अरूपी द्रव्यों को अगुरुलघु बताया है। देशावधि, परमावधि और सर्वावधि का स्वरूप
षट्खण्डागम में अवधि के देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ये तीन भेद किये हैं। इसका समर्थन अकलंक, विद्यानंद आदि आचार्यों ने भी किया है 01 अकलंक ने स्पष्ट रूप से कहा है कि देशावधि, परमावधि के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन-तीन भेद होते हैं, जबकि सर्वावधि में भेद नहीं होता है। धवलाटीका में भी ऐसा ही उल्लेख प्राप्त होता है। सर्वावधि का भेद नहीं होने से यह कह सकते हैं कि परमावधि का उत्कृष्ट (चरम सीमा) विषय प्राप्त होने के बाद अगले समय में ही अमुक मात्रा में उसका विषय बढ़ता है और सर्वावधि ज्ञान प्राप्त होता है, जिसमें किसी भी प्रकार की वृद्धि और हानि नहीं होती है अर्थात् अवस्थित रहता है। अकलंक देशावधि और परमावधि को एक ही मानकर अन्त में देशावधि और सर्वावधि ऐसे दो भेद स्वीकार करते हैं। इनका स्वरूप निम्न प्रकार से है - देशावधि
धवलाटीका के अनुसार 'देश' का अर्थ सम्यक्त्व (संयम का अवयव) है। अतः सम्यक्त्व जिस अवधि की मर्यादा है, वह देशावधि है।205 अकलंक के अनुसार तिर्यंचों में देशावधि ही होता है। वैसे चारों गतियों में देशावधि होता है, लेकिन यहाँ उल्लेख तिर्यंच और मनुष्य गति की अपेक्षा से किया गया है। मनुष्य में तीनों प्रकार का अवधि होता है, इसलिए अकलंक ने मनुष्य गति का भी कथन नहीं किया है। श्वेताम्बर परम्परा में पन्नवणा के 33वें पद में परम-अवधि को सर्व-अवधि
और इससे नीचे की अवधि को देशावधि कहा है। मनुष्य में देश अवधि और सर्व अवधि दोनों हो सकते हैं। तिर्यंच, देव और नरक में मात्र देशावधि ही होता है। देशावधि के भेद
देशावधि के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ये तीन भेद होते हैं।
1. जघन्य देशावधि में उत्सेधांगुल से असंख्येय भाग क्षेत्र को जानने वाला अर्थात् पहले जो अवधि का जघन्य प्रमाण बताया वही जघन्य देशावधि का प्रमाण है। यह मनुष्य और तिर्यंच में ही होता है। 200. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 659-667 201. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.5 पृ. 56, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.22.10 से 17 202. तत्र देशावधिस्त्रेधा जघन्य-उत्कृष्टः अजघन्योत्कृष्टश्चेति । तथा परमावधिरपि त्रिधा। सर्वावधिरविकल्पत्वादेक एव।
- तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.5, पृ. 56 203. षट्खण्डागम, पु. 9, सूत्र 4.1.2,3,4 पृ. 14, 42, 48
204. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.5 पृ. 57 205. देसं सम्मत्तं, संजमस्स अवयवभावादो, तमोही मज्जाया जस्स णाणस्स तं देसोहिणाणं।-षटखण्डागम, पु. 13, सू. 5.5.59 पृ. 323 206. तिरश्चां तु देशावधिरेव न परमावधिर्नापि सर्वावधिः। - तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.22.5 पृ. 57