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________________ [324] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन कोई अवधिज्ञानी भाषादि अगुरुलघु द्रव्यों को अमुक समय तक देखता हुआ गिर जाता है। अगुरुलघु (भाषा वर्गणा के समीप द्रव्य से) द्रव्य से आरंभ हुआ अवधि अनुक्रम से ऊपर बढ़ता है, लेकिन नीचे की ओर नहीं बढ़ता है, क्योंकि वह ऊपर के ही भाषा द्रव्यों के अगुरुलघु द्रव्यों को देखता है तथा कोई अवधिज्ञान तथाविध विशुद्धिवाला होकर बढ़ता हुआ औदारिक आदि के गुरुलघु द्रव्यों को और भाषा वर्गणा आदि के अगुरुलघु द्रव्यों को भी एक साथ देखता है। 156 जिनदासगणी, हरिभद्र, मलयगिरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। 157 'तेया-भासादव्वाण, अंतरा एत्थ लभइ पट्ठवओ । गुरुलहु अगुरुयलहुयं, तंपि य तेव निट्ठाइ । 158 के अनुसार द्रव्य की अपेक्षा तैजस और भाषा वर्गणा के मध्य में अयोग्य द्रव्य (जो दोनों के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है) उन द्रव्यों के स्कंधों को देखने से अवधिज्ञान का आरंभ होता है और इसी में अंत होता है। इस गाथा में तैजस और भाषा के बीच में रहे हुए द्रव्यों को ही गुरुलघु और अगुरुलघु द्रव्य कहा गया है, तो उपर्युक्त वर्णन में औदारिक आदि द्रव्यों को गुरुलघु और अगुरुलघु द्रव्य क्यों कहा है ? इसका समाधान यह है कि आठ स्पर्श वाले बादर रूपी द्रव्य गुरुलघु और चार स्पर्श वाले सूक्ष्म रूपी द्रव्य तथा अमूर्त आकाशादिक अगुरुलघु होते हैं। 59 आवश्यकनिर्युक्ति के अनुसार औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस के द्रव्य स्थूल और गुरुलघु द्रव्य है और कार्मण, भाषा, श्वासोच्छ्वास, मनोद्रव्य, अन्य परमाणु, द्वयणुक आदि तथा आकाश आदि सूक्ष्म और अगुरुलघु द्रव्य अर्थात् चार स्पर्श वाले हैं।160 आवश्यकनिर्युक्ति'' में वर्णित विषय के आधार पर जिनभद्र का अनुसरण कर मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने स्पष्ट किया है कि - औदारिकशरीर, वैक्रियशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर, भाषावर्गणा, आनपान (श्वासोच्छ्वास) वर्गणा, मनोवर्गणा, कार्मणशरीर, तैजस द्रव्य, भाषाद्रव्य, आनपान ( श्वासोच्छ्वास) द्रव्य, मनोद्रव्य, कर्मद्रव्य, ध्रुववर्गणा आदि उत्तरोत्तर सूक्ष्म हैं। इस प्रकार कार्मण शरीर की अपेक्षा तैजस द्रव्य सूक्ष्म है क्योंकि बद्ध की अपेक्षा अबद्ध द्रव्य विशेष सूक्ष्म होता है। जैसे-एक लड्डू को देखना जितना सरल है उतना उसकी एक-एक बूंदी को देखना कठिन भी है। अवधिज्ञानी उपर्युक्त वर्णित वर्गणा और द्रव्यों को जितना जितना अधिक देखने में क्रम से आगे बढ़ता है, उतना उतना वह उत्तरोत्तर बढ़ते प्रमाण में क्षेत्र और काल को देखता है। ऐसा ही वर्णन धवलाटीका 162 में भी किया है। आवश्यकनिर्युक्ति के अनुसार अवधिज्ञानी तैजस शरीर से प्रारंभ होकर भाषाद्रव्य तक जितने जितने द्रव्यों को देखता हुआ आगे बढ़ता है, वह क्षेत्र से असंख्यात द्वीप - समुद्र और काल से पल्योपम का असंख्यातवां भाग उत्तरोत्तर अधिक देखता है । षट्खण्डागम 63 से आवश्यकनिर्युक्ति में विशेष कहा है कि जो अवधिज्ञानी तैजस शरीर के पुद्गलों को देखता है, तो वह काल से भव पृथक्त्व (29) भवों को देखता है, उस भव पृथक्त्व के मध्य किसी भव में यदि उसे अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ हो तो उस अवधिज्ञान से दृष्ट पूर्वभवों की उसे स्मृति होती है, उनका साक्षात् नहीं होता। इससे आगे बढ़ते-बढ़ते अवधिज्ञानी मनोद्रव्यों को देखता है तब वह लोक और पल्योपम का असंख्यातवां भाग देखता है।164 इस प्रकार क्रमशः आगे बढ़ता हुआ वह ध्रुववर्गणाओं को देखता है। अंत में अवधि की 156. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 655-656 158. विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 627 160. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 41, विशेषावष्यकभाष्य गाथा 658 161. आवश्यकनिर्युक्ति, गाथा 41, 42 163. षट्खण्डागम, पु. 13, सूत्र 5.5.59, गाथा 9, पृ. 311 157. नंदींचूर्णि पृ.34, हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति पृ. 34, मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 97 159. द्रव्य लोकप्रकाश सर्ग, 11 श्लोक 24 162. षट्खण्डागम, पु. 13, पृ. 310-313 164. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 44, विशेषावश्यकभाष्य गा० 677
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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