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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
इनमें प्रथम पांच स्थापनाएं ( श्रुतादेश) ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, क्योंकि इन को यदि ग्रहण करने पर दो दोषों की प्राप्ति होती है 1. इन पांच प्रकार की स्थापनाओं को स्थापित करके अग्निकाय के जीवों को असत्कल्पना से छहों दिशाओं में घुमावें और वे जितने क्षेत्र का स्पर्श करें, वह क्षेत्र अवधिज्ञान के उत्कृष्ट क्षेत्र से अल्प होता है। 2. प्रत्येक आकाश प्रदेश में प्रत्येक जीव की स्थापना करना आगम विरुद्ध है । आगम में उल्लेख है कि जीव कम से कम स्व-स्व अवगाहना जितने आकाश प्रदेशों को अवगाहित करके ही रहता है। जैसेकि भगवतीसूत्र शतक 19 उद्देशक 3 में अवगाहना के 44 बोलों की अल्पबहुत्व में सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्त की जघन्य अवगाहना से सूक्ष्म वायु के अपर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी कही है। अतः प्रथम पाँच स्थापनाएँ अनादेश रूप होने से ग्रहण करने योग्य नहीं हैं।
छठी स्थापना (श्रुतादेश) में प्रत्येक अग्निजीव को अपने-अपने अवगाहन क्षेत्र अर्थात् स्व-स्व अवगाहना क्षेत्र में श्रेणी के रूप में स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार असंख्य आकाश प्रदेशात्मक स्व-अवगाहना में पंक्ति में जीव स्थापना करने पर सूचि (श्रेणी) रूप छठे प्रकार का श्रुतादेश प्राप्त होता है। आगमानुसार यही श्रुतादेश ग्रहण करने योग्य है। यह क्षेत्र ही अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र है और इसको ग्रहण करने पर उपर्युक्त दो दोषों की भी प्राप्ति नहीं होती है, यथा 1. सूची में एक-एक जीव असंख्येय आकाश प्रदेशों में पंक्ति रूप से अवगाढ़ होता है, तब बहुतर क्षेत्र की स्पर्शना करता है। 2. इस अवगाह का आगम से विरोध नहीं है।
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लोक के असंख्यात प्रदेशों में अवगाहित पंक्तिरूप में व्यवस्थित उन अग्निजीवों की सूची को काल्पनिक रूप से अवधिज्ञानी के शरीर के चारों ओर छहों दिशाओं में घुमाने पर वह सूची बहुत क्षेत्र को स्पर्श करती है। छठें श्रुतादेश में स्व-स्व अवगाहना जितने प्रदेशों में जीव की स्थापना करेंगे अर्थात् एक जीव की अवगाहना पूर्ण होगी उसके बाद ही अगले जीव की अवगाहना क्षेत्र में उसकी स्थापना करेंगे। इस प्रकार एक के बाद एक जीव की स्थापना करने से सूची । अलोक तक चली जाएगी, फिर उस सूची को छहों दिशाओं में घुमाएंगे तो वह लोक सहित अलोक में लोक जितने अंसख्य खण्ड हैं, उनको स्पर्श करेगी अर्थात् लोक जितने व्यापक असंख्येय आकाश खंडों का अतिक्रमण कर अलोक में जा कर ठहर जाती है। वह सूची लोक- अलोक के जितने क्षेत्र को स्पर्श करती है, उतना क्षेत्र अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। यह क्षेत्र अलोक में लोक प्रमाण असंख्येय आकाशखण्ड जितना है। 24 इस श्रेणी को छहों दिशाओं में घुमाने में अवधिज्ञानी के शरीर जितना क्षेत्र और बढ़ जायेगा। इस प्रकार उत्कृष्ट अवधि का क्षेत्र थोड़ा लम्बा गोल बनेगा। क्योंकि पुरुष की ऊँचाई अधिक और जाड़ाई - चौड़ाई कम होती है।
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प्रश्न - उपर्युक्त वर्णन के अनुसार अवधिज्ञानी का उत्कृष्ट विषय अलोक में लोक समान असंख्य खण्ड जानने जितना है एवं दूसरी ओर अवधिज्ञानी रूपी द्रव्य को ही जानता - देखता है। किन्तु अलोक में तो रूपी द्रव्य नहीं होते हैं फिर अवधिज्ञान का इतना उत्कृष्ट विषय क्षेत्र लेने से क्या लाभ है? अथवा किसी जीव को लोक प्रमाण अवधिज्ञान होता है उसके बाद यदि उसके परिणाम उत्तरोत्तर विशुद्ध होते हैं तो उसके अवधिक्षेत्र में भी वृद्धि होती है, वह वृद्धि अलोक के क्षेत्र में होती है तो ऐसी वृद्धि का क्या लाभ, क्योंकि अलोक में तो अवधि के विषय रूप रूपी पुद्गल नहीं हैं ?
अवधिज्ञानी घुमाया गया क्षेत्र