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पंचम अध्याय
नहीं करके दूसरे समय में जितनी होती है, मौटाई उत्तनी रखकर शेष का संकोच करता है और तीसरे समय में लम्बाई का संकोच करके अपने सूक्ष्म निगोद की अवगाहना में व्याप्त हो जाता है। सामान्यतः मोटाई, चौड़ाई और, लम्बाई इस क्रम से संकोच करता है। इसलिए तीसरे समय वाले जीव सूक्ष्म निगोद की जघन्य अवगाहना समझी जाती है। वह तीन सूचीसमय का आहारक भी होता है एवं जघन्य अवगाहना वाला भी होता है।
प्रतर
विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
चौडाई
चौडाई
घन
लम्बाई 1000 योजन
लम्बाई 1000 योजन
लम्बाई 1000 योजन
[317]
-चित्र- 2 (अ)
-चित्र- 2 (ब)
-चित्र-2 (स)
-चित्र- 2 (4)
(चित्र - 2 - आगमानुसार )
षट्खण्डागम के अनुसार सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की जितनी जघन्य अवगाहना होती है उतना ही अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है। 21 अर्थात् उत्सेधांगुल को स्थापित कर उसमें पल्योपम के असंख्यातवें भाग का भाग देने पर जो एक खण्ड प्रमाण लब्ध आता है उतनी तीसरे समय में आहार ग्रहण करने वाले और तीसरे समय में तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की जघन्य अवगाहना होती है। ऐसा ही उल्लेख गोम्मटसार में भी मिलता है। 122 यह जघन्य अवगाहना कितनी होती है, इसका प्रमाण नहीं मिलता, फिर भी क्षेत्र खण्डन के अनुसार समीकरण आदि करने पर ऊंचाई, चौड़ाई, लम्बाई प्रमाण उत्सेधांगुल असंख्यातवें भाग मात्र होता है उनको परस्पर गुणा करने पर घनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण घन क्षेत्रफल होता है। इतना ही प्रमाण जघन्य अवगाहना का और इतना ही जघन्य अवधि का क्षेत्र होता है।
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अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र परिमाण
आवश्यकनियुक्ति में अवधिज्ञान का उत्कृष्ट क्षेत्र का निरूपण निम्न प्रकार से किया है
सव्वबहु अगणिजीवा निरंतरं जत्तियं भरिज्जं सु ।
खेत्तं सव्वदिसागं परमोही खेत णिहिडो ॥
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अर्थात् जब सूक्ष्म अग्निकाय के जीव और बादर अग्निकाय के जीव उत्कृष्ट संख्या में होते हैं तब सभी अग्निकाय के जीवों को सम्मिलित करके ये सभी अग्निकायिक जीव सभी दिशाओं में जितने क्षेत्र को व्याप्त करते हैं वह परमावधि का उत्कृष्ट क्षेत्र है। इसे जिनभद्रगणि ने आवश्यकनिर्युक्ति के आधार पर एक कल्पना से समझाया है अवसर्पिणी काल में दूसरे तीर्थंकर के समय जब अग्निकाय के जीवों की उत्कृष्ट संख्या होती है और जब बादर के साथ सूक्ष्म अग्निकाय के जीवों की भी उत्कृष्ट संख्या होती है तो उन उत्कृष्ट अग्निकाय के जीवों की छह प्रकार से स्थापना होती है। सर्वप्रथम अग्निकाय के एक एक जीव की एक-एक आकाश प्रदेश पर स्थापना करके घन, प्रतर और श्रेणी रूप तीन प्रकार की स्थापना प्राप्त होती है। दूसरे प्रकार से स्व-स्व अवगाहना में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उन पर जीवों की स्थापना करके घन, प्रतर और श्रेणी रूप तीन प्रकार की स्थापना प्राप्त होती है। इस प्रकार कुल छह प्रकार की स्थापना प्राप्त होती है ।
121. षट्खण्डागम, पृ. 13, सूत्र 5.5.59 गाथा 3, पृ. 301-302 122. गोम्मटसार ( जीवकांड) भाग-2, गाथा 381, पृ. 625 123. आवश्यकनियुक्ति गाथा 31, युवाचार्य मधुकरमुनि, नंदीसूत्र 15, पृ. 36 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 598