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[316] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन उदय के बिना उस भव संबंधी अन्य कार्य कैसे होंगे? तथा प्रज्ञापना सूत्र के 36वें पद में मारणांतिक समुद्घात के दण्ड को विष्कंभ और बाहल्य से शरीर प्रमाण बताया है और जीव मारणांतिक समुद्घात में काल भी कर सकता है, इसलिए अन्तिम समय तक समुद्घात हो सकती है। अतः अवगाहना का संकोच परभव में ही मानना चाहिए।19 दिगम्बराचार्य का भी यही मत है।120 मलधारी हेमचन्द्र ने भी टीका में इस मत का खण्डन किया है।
दूसरा मत - उत्पत्ति के प्रथम समय में जीव द्वितीयादि समय की अपेक्षा से अतिसूक्ष्म होता है। प्रति समय उसकी मोटाई बढ़ती जाती है इसलिए यहाँ प्रथम समय का सूक्ष्म जीव ही ग्रहण करना चाहिए और उतना ही अवधिज्ञान का जघन्य विषयभूत क्षेत्र मानना चाहिए।
समाधान - मलधारी हेमचन्द्र कहते हैं कि यहाँ अतिसूक्ष्म अथवा अति बड़ी अवगाहना के साथ कोई प्रयोजन नहीं, लेकिन योग्य अवगाहना के साथ प्रयोजन है। जितना अवधिज्ञान का जघन्य विषयभूत क्षेत्र होता है, उसके लिए जितनी योग्य अवगाहना होनी चाहिए वह पनक के तीन समय का आहार ग्रहण करने के बाद होती है। भले ही तीन समयों में आहार करने से अवगाहना बढ गई हो तो भी अवधि के प्रायोग्य जघन्यता ही इष्ट है। अतः प्रथम समय की जघन्य अवगाहना नहीं है। इसलिए दो समय भी नहीं कहा कारण कि वह अवगाहना अवधि प्रायोग्य जघन्यता से कम है और चार समयों में अधिक हो जाती है, अत: तीन समय के आहार को ग्रहण किये पनक जीव का ही ग्रहण किया गया है।
विशेषावश्यकभाष्य में जघन्य अवधिज्ञान के सम्बन्ध में जो वर्णन किया है, वह सम्प्रदाय के आधार पर किया गया है, लेकिन यह वर्णन आगमानुकूल प्रतीत नहीं होता है। अतः दोनों की तुलना निम्न प्रकार से है - जिनभद्रगणि का मत
1000 योजन लम्बा मत्स्य (चित्र-1) पहले समय में चौडाई अवगाहना संकोच करके लम्बाई अंगुल के असंख्यातवें भाग
लम्बाई 1000 योजन घन करके प्रतर और दूसरे समय में सूची बनाता है।
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| ---+-- आगमानुसार
५-+--- । चित्र-2 (अ) प्रथम समय में मोटाई (जाड़ाई)
------- को संकुचित करता है और निम्न प्रकार से चित्र-2 (ब) (चित्र-1-भाष्यकार मतानुसार) प्रतर बनाता है। फिर दूसरे समय में चौड़ाई को संकुचित करके श्रेणी (सूची) चित्र-2 (स) बनाता है। तीसरे समय में सूची (लम्बाई का घन) करके अंगुल के असंख्यातवें भाग चित्र-2 (द) घन जितना हो जाता है।
उपर्युक्त कथन का आशय है कि 1000 योजन का मत्स्य जब स्व-अवगाढ क्षेत्र में उत्पन्न होता है तो प्रथम समय में कुछ आत्मप्रदेश उत्पत्ति स्थान पर पहुँच कर आहार ग्रहण कर लेते हैं। जिससे वह प्रथम समय में आहारक हो जाता है। प्रथम समय में घन आर्थात् बाहल्य (मोटाई) का संकोच करके प्रतर बनाता है। उस प्रतर की मौटाई प्रथम समय प्रायोग्य जितनी चाहिए उतनी ही रखता है। दूसरे समय में प्रतर अर्थात् विष्कंभ (चौड़ाई) का संकोच करके सूची (श्रेणी) बनाता है। इसमें भी पूरा संकोच 119. जीवस्स णं भंते! मारणांतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहपण्णत्ता? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता
विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागो उक्कोसेणं लोगंताओ लोगंतो। प्रज्ञापना सूत्र भाग-2, पृ. 462 120, गोम्मटसार जीवकांड भाग 2 गाथा 584 पृ. 815
मौटाई
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