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पंचम अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में अवधिज्ञान
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१. ज्ञशरीर नोआगम द्रव्य निक्षेप - अवधिज्ञानी के शरीर से आत्मा के निकल जाने पर शेष रहा मुर्दा शरीर-नोआगम ज्ञायक शरीर द्रव्य है। उसमें भूतकाल में अवधिज्ञानी की आत्मा निवास करती थी। अब वह गत-भाव होने से खाली पात्र रह गया है- घृत निकल जाने के बाद खाली रहे हुए घड़े के समान। तीर्थंकर भगवान् अथवा साधु या श्रावक का निर्जीव शरीर इसी भेद में आता है ।
२. भव्य-शरीर नोआगम द्रव्य निक्षेप - भविष्य में अवधि का ज्ञाता होने वाला द्रव्य अर्थात् जिसने मनुष्य में रहते हुए नरक अथवा देव का आयुष्य बांध लिया है, तो वह भविष्य में अवधि का ज्ञाता होगा, उसे भव्यशरीर नो आगमत द्रव्य अवधि कहते हैं। जैसे किसी ने घृत भरने के लिए घड़ा बनाया या खरीदा, तो भविष्य में उसमें घृत भरा जाएगा, किन्तु अभी खाली है। वह घड़ा भी इस भेद में गिना जाता है।
३. ज्ञ-भव्य-व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य निक्षेप - इसके तीन भेद हैं - १. लौकिक, २. लोकोत्तर और ३. कुप्रावचनिक।
लौकिक - मिथ्यादृष्टि का विभंगज्ञान में उपयोग नहीं लगाना, वह लौकिक नोआगम द्रव्य निक्षेप है।
लोकोत्तर - निग्रंथ साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, आत्म-कल्याण के लिए अवधि की अनुपयोगपूर्वक यथाकाल जो आराधना करते हैं, वह लोकोत्तर नोआगम द्रव्य निक्षेप है ।
कुप्रावचनिक - अन्य मतावलम्बी चरक आदि अपने विभंग ज्ञान से जानकर इष्ट देव को अनुपयोगपूर्वक अर्ध्य देते हैं, प्रणाम करते हैं, हवन करते हैं और मन्त्र का जाप आदि अनेक क्रियाएँ करते हैं । ये सब कुप्रावचनिक नोआगम द्रव्य निक्षेप है।
(4) क्षेत्र अवधि- जिस क्षेत्र में अवधि उत्पन्न होता है या जिस क्षेत्र में अवधि ज्ञान की प्ररूपणा होती है, या अवधिज्ञानी जिस क्षेत्र में रहे हुए द्रव्यों को जानता है, यह सभी क्षेत्र अवधि कहलाता है।
(5)काल अवधि - जिस काल में अवधि उत्पन्न होता है या जिस काल में अवधि की प्ररूपणा होती है या अवधिज्ञानी जिस काल में रहे हुए द्रव्यों को जानता है, यह सभी काल अवधि कहलाता है।
(6) भव अवधि - जिस नारकी आदि में भव अवधिज्ञान होता है वह भव अवधि कहलाता है।
(7) भाव अवधि - जिस क्षायोपशमिक आदि भाव से जो अवधि होता है, वह भाव अवधि कहलाता है अर्थात् शब्द के द्वारा वर्तमान पर्याययुक्त वस्तु का ग्रहण होना भाव निक्षेप है। इसके दो भेद हैं -
१. आगमतः - जिसका अवधि में उपयोग लगा हुआ हो, अथवा जो अवधि की उपयोग पूर्वक क्रिया कर रहा हो वह आगमतः भाव निक्षेप है ।
२. नोआगम से - इसके तीन भेद हैं ।
(अ) लौकिक - मिथ्यादृष्टि का विभंगज्ञान में उपयोग लगाना, वह लौकिक नोआगम भाव निक्षेप है ।
(ब) लोकोत्तर - निग्रंथ साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका, आत्म-कल्याण के लिए अवधि की उपयोगपूर्वक और यथाकाल जो जो आराधना करते हैं, वह लोकोत्तर नोआगम भाव निक्षेप है ।
(स) कुप्रावचनिक - अन्य मतावलम्बी चरक आदि अपने विभंग ज्ञान से जानकर इष्ट देव को भावपूर्वक अर्ध्य देते हैं, प्रणाम करते हैं, हवन करते हैं और मन्त्र का जाप आदि अनेक क्रियाएँ करते हैं । ये सब कुप्रावचनिक नोआगम भाव निक्षेप है। इस प्रकार भाष्यकार ने सात निक्षेपों के द्वारा अवधि की व्याख्या की है। इसके बाद दूसरे निक्षेप का स्वरूप समझाया।110 110. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 581-586