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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन मलयगिरि आदि आचार्यों ने 'अव' उपसर्ग का अर्थ अधः (नीचे) किया है। अकलंक ने इसको स्पष्ट किया है कि अवधि का विषय नीचे की ओर बहुत प्रमाण में होता है। मलयगिरि के अनुसार 'अधो विस्तृतं वस्तु परिच्छिद्यते अनेन इति'' अर्थात् नीचे (अधो) को विस्तृत रूप से जो जानता है वह अवधि ज्ञान है। यहाँ कहने का तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञानी अधोलोक के रूपी पदार्थों को अधिक जानता है, साथ ही तिर्यक् लोक और ऊर्ध्वलोक के सारे रूपी पदार्थों का भी जानता है।
उमास्वाति, पूज्यपाद, जिनभद्रगणि, हरिभद्र, मलयगिरि आदि आचार्यों के अनुसार अवधि शब्द का दूसरा अर्थ मर्यादा भी है। अविधज्ञान की मर्यादा (सीमा) है कि इससे मात्र रूपी पदार्थों को ही जाना जाता है, पूज्यपाद कहते हैं कि रूपी का अर्थ पुद्गल द्रव्य के साथ संबंधित जीव समझना है। अवधिज्ञान के द्वारा अरूपी पदार्थों को नहीं जाना जाता है यही उसकी मर्यादा है। इसका उल्लेख जिनभद्रगणि आदि आचार्यों ने किया है।
___ यहां सहज ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि जब मति आदि चारों ज्ञान ही मर्यादा वाले हैं तो अवधिज्ञान को ही अवधि अर्थात् मर्यादा वाला ज्ञान क्यों कहते हैं? इस प्रश्न का उत्तर अकलंक इस प्रकार देते हैं कि जैसे गतिशील सभी पदार्थ गो आदि हैं, लेकिन गो शब्द गाय के लिए ही रूढ़ हो गया है वैसे ही मति आदि चार ज्ञानों में इस ज्ञान के लिए ही अवधि शब्द रूढ़ हो गया है।' वीरसेनाचार्य के अनुसार अवधि तक चारों ज्ञान मर्यादित हैं, परंतु अवधि के बाद केवलज्ञान अमर्यादित है, ऐसा बताने के लिए अवधि शब्द का प्रयोग किया गया है। धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य ने यहाँ पर अवधि को चौथे ज्ञान के रूप में उल्लिखित किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कतिपय प्राचीन आचार्यों ने मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मन:पर्यवज्ञान के बाद अवधिज्ञान को रखा होगा, लेकिन अब यह मत प्राय: किसी भी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं होता है। सभी आचार्य मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान के क्रम में ही उल्लेख करते हैं।
धवला टीकाकार ने अवधि का एक अर्थ आत्मा भी किया है।" उपाध्याय यशोविजय ने पूर्वाचार्यों के भावों को ध्यान में रखते हुए अवधि का लक्षण इस प्रकार से किया है कि सकल रूपी द्रव्यों का जानने वाला और सिर्फ आत्मा से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है।12
___ उपर्युक्त वर्णन का सार यह है कि अवधि शब्द के दोनों अर्थ - नीचे और मर्यादा लेना अधिक उचित हैं। 2. सर्वार्थसिद्धि 1.9, हारीभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 8, मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 65, धवला पु. 9, सूत्र. 4.1.2, पृ.13 3. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.9.2 4. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 65 5. रूपिष्ववधेः । तत्त्वार्थ सूत्र 1.28, सर्वार्थसिद्धि 1.27, नंदीचूर्णि पृ.11,12 6. (अ) अवधानं वा अवधि मर्यादा इत्यर्थः। - विशेषावश्यकभाष्य गाथा 82, (ब)........विषयपरिच्छेदनमित्यर्थः। - हारिभद्रीय नंदीवृत्ति पृ. 8, (स) यद्वा अवधानम् आत्मनोऽर्थ साक्षात्कारणव्यापारोऽवधिः ।
-मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 65 7. सर्वार्थसिद्धि, 1.27 8. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 82, सर्वार्थसिद्ध 1.9, तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.9.3, धवला पु. 9, सूत्र 4.1.2, मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 65 9. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1.9.3 10. ओहिणाणादो हेट्ठिमसव्वणाणाणि सावहियाणि, उवरिम केवलणाणं णिरवहियमिदि जाणा वण? मेहिववहारो कदो।
- षट्खण्डागम (धवला), पु. १, सूत्र 4.1.2 पृ. 13 11. षट्खण्डागम (धवला), पु. १, सूत्र 4.1.2, पृ. 12 12. सकलरूपिद्रव्यविषयकजातीयम् आत्ममात्रापेक्षं ज्ञानमवधिज्ञानम्। - जैनतर्कभाषा, पृ. 24