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पंचम अध्याय
विशेषावश्यक भाष्य में अवधिज्ञान
भारतीय दार्शनिकों और पाश्चात्य दार्शनिकों ने अपने ग्रन्थों में अतीन्द्रियज्ञान की चर्चा की है। सामान्यतया लोग किसी ज्योतिषी, मन्त्र-तन्त्र या किसी देव-देवी के उपासक से भूत, भविष्य एवं वर्तमान आदि की घटनाओं के बारे में सुनकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं तथा उसे चमत्कार मानकर उसका अनुगमन करने लग जाते हैं और कभी-कभी तो स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है वे अपनी धन-सम्पत्ति आदि का भारी नुकसान कर लेते हैं। यह सब उनके अज्ञान के कारण होता है कि वे उन व्यक्तियों के ज्ञान को अतीन्द्रिय ज्ञान समझ लेते हैं। वस्तुतः उनका ज्ञान अतीन्द्रिय नहीं होता, वह इन्द्रिय एवं मन से होने वाले मतिज्ञान का ही एक विशेष प्रकार है । पूर्वजन्म की बीती बातों को याद करने वाले जातिस्मरण को भी लोग अतीन्द्रिय अवधिज्ञान मान लेते हैं, लेकिन वास्तव में वह मतिज्ञान का ही एक विशेष भेद है।
अतीन्द्रिय ज्ञान के तीन भेद होते हैं अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इसमें से अंतिम दो संयमी जीव को होते हैं तथा अवधिज्ञान संयमी और असंयमी सभी जीवों को हो सकता है । अतः अतीन्द्रिय अवधिज्ञान का वास्तविक स्वरूप क्या है ? अवधिज्ञान के कितने प्रकार हैं? यह कैसे उत्पन्न होता है ? क्या यह उत्पन्न होने के बाद नष्ट हो सकता है? या घटता-बढ़ता रहता है । कौन-कौन से जीवों को अवधिज्ञान हो सकता है ? इत्यादि प्रश्नों के समाधान के लिए अवधिज्ञान का अध्याय में विस्तार से वर्णन किया जाएगा।
अवधिज्ञान सीधा आत्मा से होने वाला ज्ञान है। इसमें इन्द्रिय एवं मन के सहयोग की आवश्यकता नहीं होती है, इसीलिए यह प्रत्यक्ष ज्ञान है । तत्त्वार्थसूत्र में इन्द्रिय एवं मन से होने वाले मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान को परोक्ष की श्रेणी में रखा गया है तथा जो ज्ञान सीधा आत्मा के द्वारा होता है उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है- 'आत्ममात्रसापेक्षं प्रत्यक्षम् ' । अवधिज्ञान का उल्लेख स्थानांगसूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि आगमों में मिलता है, किंतु वहां पर इसके स्वरूप के संबंध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है । किन्तु नंदीसूत्र में प्रत्यक्ष ज्ञान के भेदों में अवधिज्ञान को स्थान दिया गया है । इसी से ज्ञात होता है कि अवधिज्ञान सीधा आत्मा से होने वाला ज्ञान है।
विशेषावश्यकभाष्य में भी पांच ज्ञानों को प्रत्यक्ष और परोक्ष में विभाजित किया गया है। मति और श्रुत इन दो परोक्ष ज्ञानों का कथन किया जा चुका है, अब प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रथम अवधिज्ञान का वर्णन किया जा रहा है ।'
‘अवधि' शब्द का प्राकृत- अर्द्धमागधी रूप 'ओहि' है। अवधिज्ञान के लिए प्राकृत में 'ओहिणाण' शब्द का प्रयोग होता है । अवधिज्ञान में इन्द्रिय और मन की अपेक्षा नहीं होती तथा आत्मा इस ज्ञान के द्वारा रूपी पदार्थों को जानता है । इसलिए इसे प्रत्यक्ष कहते हैं, लेकिन सभी पदार्थों को नहीं जान पाने के कारण यह देश प्रत्यक्ष है।
'अवधि' शब्द ' अव' और 'धि' से मिलकर बना है। इसमें 'अव' उपसर्ग है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। यहाँ 'अव' उपसर्ग का अर्थ नीचे-नीचे, 'धि' का अर्थ जानना । पूज्यपाद, 1. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 567