________________
[296] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन करने वाला, सम्यक् अहिंसा, सम्यक् तप की प्रेरणा करने वाला, भव-भ्रमण का नाश करने वाला और मोक्ष पहुँचाने वाला श्रुत है, वह 'सम्यक्श्रुत' है। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य रूप सभी आगम सम्यक् श्रुत रूप हैं। जो प्रवचन और आगम की अपेक्षा अज्ञानी हैं और मिथ्यादृष्टि हैं, जो लोक दृष्टि वाले हैं, उनकी स्वच्छन्द मति और बुद्धि के द्वारा विकल्पित जो प्रवचन और आगम हैं, वे 'मिथ्याश्रुत' हैं। भारत, रामायण आदि ग्रंथ मिथ्याश्रुत रूप हैं।
छद्मस्थों में जघन्य दस पूर्वी और उत्कृष्ट चौदहपूर्वी की रचना को एकांत रूप से सम्यक् श्रुत माना गया है, जबकि दसपूर्वी से कम पूर्वधारी के द्वारा रचित ग्रंथ सम्यक्श्रुत और मिथ्याश्रुत दोनों रूप हो सकते हैं।
जिनभद्रगणि ने सम्यक्-मिथ्याश्रुत के प्रसंग में पांच सम्यक्त्वों का उल्लेख किया है, जिनका विस्तार से वर्णन मलधारी हेमचन्द्र ने बृहवृत्ति में किया है।
सम्यक्त्व और श्रुत में अन्तर स्पष्ट करते हुए कहा है कि शुद्धतत्त्वावबोध रूप श्रुत में तत्त्व श्रद्धान अंश सम्यक्त्व है और यह सम्यक्त्व श्रुत तत्त्वबोध श्रुतज्ञान है। सम्यक्त्व कारण और श्रुतज्ञान कार्य रूप होता है अत: यह दोनों में भिन्नता है।
___ नंदीसूत्र (पृ. 155) में श्रुत की परिणति की अपेक्षा चार भंगों का उल्लेख किया गया है - 1. जिस मिथ्यादृष्टि ने इन मिथ्याश्रुतों को 'ये सम्यक्श्रुत हैं', इस मिथ्याश्रद्धा के साथ ग्रहण किया है, उसके लिए ये मिथ्याश्रुत हैं, क्योंकि इससे वह मोक्ष के विपरीत मिथ्यात्व का आग्रही होता है। 2. जिस सम्यग्दृष्टि ने इन मिथ्याश्रुतों को 'ये मिथ्याश्रुत है'-इस सम्यग् श्रद्धा के साथ ग्रहण किया है, उसके लिए ये सम्यक्श्रुत हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि इन्हें पढ़ सुन कर इनकी मोक्ष के प्रति असारता को जानकर सम्यक्त्व में स्थिर बनता है। 3. मिथ्यादृष्टि के लिए भी ये सम्यक्श्रुत हैं। क्योंकि यह उसकी सम्यक्त्व में निमित्त बनते हैं। जैसेकि मिथ्यादृष्टि, मिथ्यात्व मोहनीय के क्षयोपशम आदि के समय इन्हें पढ़-सुनकर सूक्ष्मार्थ समझ में आने के कारण या उत्पन्न शंका का निवारण हो जाने के कारण या दूसरों के द्वारा सम्यक् रूप में समझाए जाने के कारण इन सम्यक्श्रुतों को-'ये सम्यक्श्रुत हैं'-यों सम्यक्श्रद्धा के साथ ग्रहण करते हैं और अपनी पूर्व की मिथ्यादृष्टि छोड़ देते हैं। 4. सम्यग्दृष्टि के लिए भी ये ही मिथ्याश्रुत हैं। क्योंकि ये मिथ्यात्व में कारण बन जाते हैं। जैसेकि कई सम्यग्दृष्टि, मिथ्यात्व मोहनीय के उदय के समय इन्हें पढ़-सुनकर सूक्ष्मार्थ समझने में न आने के कारण या उत्पन्न हुई शंका का निवारण न होने के कारण या दूसरों के द्वारा भ्रांति उत्पन्न करने इत्यादि कारणों से, इन सम्यक्श्रुतों को-'ये मिथ्याश्रुत हैं'-यों मिथ्या श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लेते हैं और सम्यग्दृष्टि को छोड़ देते हैं 63
सादि-सपर्यवसित श्रृत तथा अनादि-अपर्यवसित श्रुत का वर्णन नय, द्रव्यादि और भवी जीव की अपेक्षा से किया गया है। द्रव्यास्तिक नय की अपेक्षा श्रुत अनादि-अपर्यवसित तथा पर्यायास्तिकाय नय की अपेक्षा सादि-सपर्यवसित है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा श्रुत सादि-सपर्यवसित और अनादि-अपर्यवसित होता है। भवी-अभवी की अपेक्षा से वर्णन करते जिनभद्रगणि ने चार भंगों का उल्लेख किया है। गमिक-अगमिक श्रुत के प्रकार को समझाते हुए कहा है कि जिमसें भंग की बहुलता हो, गणित का विषय हो अथवा सदृश पाठ हो, वह गमिक श्रुत कहलाता है। जिसमें ऐसा उल्लेख नहीं हो वह अगमिक श्रुत कहलाता है। 263. अहवा मिच्छदिट्ठिस्स वि एयाई चेव सम्मसुयं कम्हा? सम्मत्तहेउत्तणओ, जम्हा ते मिच्छदिट्ठिया तेहिं चेव समएहिं चोइया समाणा केइ सपक्खदिट्ठिओ चयंति। - नंदीसूत्र, पृ. 155