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________________ चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान [297] अंगप्रविष्ट-अंगबाह्य - जो आगम अर्थ रूप में तीर्थंकर द्वारा प्रणीत और सूत्र रूप में गणधरकृत हैं, वे अंगप्रविष्ट कहलाते हैं। भगवान् की अर्थरूप वाणी के आधार पर गणधर के अलावा अन्य आचार्यों द्वारा रचित आगम अंगबाह्य कहलाते हैं। दिगम्बर परम्परा में भी गणधरकृत आगम अंग और आचार्य (आरातीय) द्वारा रचित आगम अंगबाह्य आगम माना गया है। अंगबाह्य के भेद - इसके आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त रूप से दो भेद होते हैं। पुनः आवश्यकव्यतिरिक्त के दो भेद होते हैं - कालिक और उत्कालिक। जिनके स्वाध्याय का काल नियत होता है, वे कालिक सूत्र होते हैं तथा जिनके स्वाध्याय का काल अनियत होता है, वे उत्कालिक सूत्र कहलाते हैं। नंदीसूत्र में उत्तराध्ययन आदि 31 कालिक सूत्रों तथा दशवैकालिक आदि 29 उत्कालिक सूत्रों के नामों का उल्लेख है। दिगम्बर परम्परा में अंगबाह्य के सामायिक आदि चौदह प्रकार बताये हैं। अर्हत् द्वारा कथित श्रुत के आधार पर आचार्य जिन सूत्रों की रचना करते हैं, वे प्रकीर्णक कहलाते हैं। प्रकीर्णक के सम्बन्ध में दो मत हैं प्रथम मत के अनुसार जिस तीर्थंकर के शासन में जितनी उत्कृष्ट साधुओं की संख्या होती है, उसके उतने उत्कृष्ट प्रकीर्णक होते हैं। दूसरा मत है तीर्थंकर के शासन में जितने प्रत्येक बुद्ध होते हैं उतने ही प्रकीर्णक होते हैं। अंगप्रविष्ट के भेद - जिस प्रकार पुरुष के शरीर में मुख्य रूप से बारह अंग होते हैं, उसी प्रकार जिनशासन में बारह अंग होते हैं। इस प्रकार अंग के बारह भेद प्राप्त होते हैं। इनका सामान्य अर्थ निम्न प्रकार से हैं - 1. आचार अंग - इसमें आचार का वर्णन है। 2. सूत्रकृत अंग - इसमें जैन-अजैन मत सूत्रित है। 3. स्थान अंग - इसमें तत्त्वों की संख्या बताई है। 4. समवाय अंग - इसमें तत्त्वों का निर्णय किया है। 5. व्याख्या प्रज्ञप्ति - इसमें तत्त्वों की व्याख्या की गई है। 6. ज्ञाता-धर्म-कथा अंग - इसमें उन्नीस दृष्टांत और दो सौ छह धर्मकथाएँ हैं। 7. उपासकदसा अंग - इसमें श्रमणों के उपासकों में से दस श्रावकों के चरित्र हैं। 8. अन्तकृद्दसा अंग - इसमें जिन्होंने कर्मों का अन्त किया-ऐसे में से नब्बे साधुओं के चरित्र हैं। 9. अनुत्तर औपपातिक - इसमें अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए तेतीस साधुओं के चरित्र हैं। 10. प्रश्नव्याकरण - इसमें पाँच आस्रव और पाँच संवर का वर्णन है। 11. विपाक - इसमें पाप और पुण्य के फल का वर्णन है। 12. दृष्टिवाद - इसमें नाना दृष्टियों का वाद था अर्थात् जिसमें विभिन्न नयों के माध्यम से विषय वस्तु का कथन किया गया है, वह दृष्टिवाद है। दिगम्बर साहित्य के अनुसार जिसमें 363 पांखड़ मतों का विस्तार से खण्डन मंडन किया गया है, वह दृष्टिवाद है। दृष्टिवाद पांच भागों में विभक्त है - 1. परिकर्म - यह दृष्टिवाद को सीखने की भूमिका है। जैसे किसी भी भाषा का गहन अध्ययन करना है, तो सर्वप्रथम उसकी बारहखड़ी सीखना आवश्यक है। प्रकार इसी दृष्टिवाद को सीखने के लिए परिकर्म का ज्ञान आवश्यक है। 2. सूत्र - जो शब्द में संक्षिप्त और अर्थ में विशाल हो वह सूत्र कहलाता है। दिगम्बर साहित्य के अनुसार जो मिथ्यादर्शन को सूचित करे वह सूत्र है। 3. पूर्वगत - तीर्थंकर सर्वप्रथम गणधर को जिस महान् अर्थ का कथन करते हैं, उस महान् अर्थ को गणधर सूत्र रूप में गूंथते हैं, वह पूर्वगत कहलाता है। पूर्वगत चौदह प्रकार का होता है - 1. उत्पाद पूर्व 2. अग्रायणीय पूर्व 3. वीर्यप्रवाद पूर्व 4. अस्तिनास्ति-प्रवाद पूर्व 5. ज्ञानप्रवाद पूर्व 6. सत्यप्रवाद पूर्व 7. आत्मप्रवाद पूर्व 8. कर्मप्रवाद पूर्व 9. प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व 10. विद्यानुप्रवाद पूर्व 11. अवन्ध्य (कल्याणनामधेय) पूर्व 12. प्राणायु (प्राणावाय) पूर्व 13. क्रियाविशालपूर्व और 14. लोक-बिन्दुसार पूर्व।
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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