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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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लब्ध्यक्षर की सत्ता एकेन्द्रिय जीवों में मानकर उनमें सोये हुए मुनि के उदाहरण से भाव श्रुत की सत्ता स्वीकार की गई है। इस प्रसंग पर जिनभद्रगणि ने एकेन्द्रिय में एक द्रव्येन्द्रिय और पांचों भावेन्द्रिय मानी है। लेकिन यह आगमानुकूल नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद में स्पष्ट रूप से एकेन्द्रिय में एक द्रव्येन्द्रिय और एक ही भावेन्द्रिय होने का उल्लेख है। एकेन्द्रिय में अन्य इन्द्रिय जनित जो कार्य होते हुए देखे जाते हैं, वे संज्ञा रूप हैं। क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के 8वें पद में एकेन्द्रिय जीवों में आहारादि दसों संज्ञाएं होती हैं।
__ अक्षरश्रुत के प्रसंग पर एक अकार आदि की पर्याय का प्रमाण बताते हुए उसकी स्व और पर पर्याय का उल्लेख किया गया है। जीव के अक्षर का अनन्तवां भाग नित्य खुला रहता है तो वह अक्षर का अनन्तवां भाग श्रुताक्षर है कि केवलाक्षर रूप? इस शंका का समाधान करते हुए उसको श्रुताक्षर रूप स्वीकार किया गया है।
अक्षरश्रुत के विपरीत अनक्षरश्रुत होता है, श्वास लेने, थूकने, खांसने आदि से जो शब्द उत्पन्न होता है, वह अनक्षर श्रुत है। जैसे अक्षर श्रुत के तीन भेद होते हैं, वैसे ही अनक्षर श्रुत के भी भेद होते हैं।
संज्ञी-असंज्ञी श्रुत - संज्ञा शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से पैदा होने वाली आहारादि की प्राप्ति के लिए आत्मा की क्रिया विशेष को संज्ञा कहते हैं। मुख्य रूप से संज्ञा के दो भेद होते हैं - प्रत्यभिज्ञान
और अनुभूति । आचार्यों ने संज्ञी-असंज्ञी के प्रसंग पर संज्ञा को विभिन्न प्रकार से परिभाषित किया है। जिनभद्रगणि ने संज्ञी-असंज्ञी श्रुत के प्रसंग पर तीन संज्ञाओं का उल्लेख करते हुए उनके आधार पर संज्ञी और असंज्ञी को परिभाषित किया है।
1. दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा - इसमें भूत-भविष्य और वर्तमान कालिक चिंतन-मनन होता है, वह दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा कहताती है। जिन जीवों में यह संज्ञा पाई जाती है, वे इस संज्ञा की अपेक्षा संज्ञी कहलाते हैं। ऐसे जीवों का श्रुत संज्ञी श्रुत और जिसमें यह संज्ञा नहीं होती उनका श्रुत असंज्ञी श्रुत कहलाता है। यह संज्ञा मन वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाई जाती है।
2. हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा - इसमें वर्तमान कालिक चिंतन-मनन होता है, वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहताती है। जिन जीवों में यह संज्ञा पाई जाती है, वे इस संज्ञा की अपेक्षा संज्ञी कहलाते हैं। ऐसे जीवों का श्रुत संज्ञी श्रुत और जिसमें यह संज्ञा नहीं होती उनका श्रुत असंज्ञी श्रुत कहलाता है। यह संज्ञा द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में पाई जाती है।
3. दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा - जिन जीवों में सम्यक्त्व होती है, वे जीव इस संज्ञा की अपेक्षा संज्ञी होते हैं। ऐसे जीवों का श्रुत संज्ञी श्रुत और जिसमें यह संज्ञा नहीं होती उनका श्रुत असंज्ञी श्रुत कहलाता है। यह संज्ञा चौदहपूर्वी में ही पाई जाती है।
तीनों संज्ञाओं में हेतुवादोपदेशिकी अशुभतर, दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा अशुभ, दृष्टिवादोपदेशिका संज्ञा शुभ है। मलयगिरि की नंदवृत्ति के अनुसार उपर्युक्त वर्णन में निरूपित संज्ञा उत्तरोत्तर विशुद्धविशुद्धतर होने से सबसे पहल हेतुवाद का कथन करना चाहिए था। लेकिन नंदी मे दीर्घकालिकोपदेशिकी का कथन पहले किया है। अतः इन संज्ञाओं का क्रम विशुद्धि के आधार पर नहीं होकर जिस संज्ञा से संज्ञी-असंज्ञी का व्यवहार किया जाता है, उसको प्रथम स्थान पर रखा गया है। आगमों में जहां भी संज्ञी-असंज्ञी जीवों की चर्चा हुई है वह दीर्घकालिकोपदेशिकी की अपेक्षा से ही हुई है। दिगम्बर परम्परा में इन तीनों संज्ञाओं का वर्णन प्राप्त नहीं होता है।
सम्यक्-मिथ्या श्रुत - अर्हत् भगवान् द्वारा प्रणीत द्वादशांगी का ज्ञान जो नवतत्त्व का, षड्द्रव्य का सम्यग् अनेकान्तवाद पूर्वक, पूर्वापर अविरुद्ध यथार्थ सम्यग्ज्ञान है, जो शम संवेगादि को उत्पन्न