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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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निकटवर्ती श्रोतागणों के उत्तम क्षमादि लक्षण रूप रत्नत्रयात्मक धर्म का कथन करती है। अथवा ज्ञाता जिज्ञासु गणधर देव के प्रश्न के अनुसार उत्तर वाक्यरूप धर्मकथा, पूछे गये अस्तित्व-नास्तित्व आदि के स्वरूप का कथन अथवा ज्ञाता तीर्थंकर गणधर, इन्द्र, चक्रवर्ती आदि के धर्मानुबन्धी कथोपकथन जिसमें हों, वह ज्ञातृधर्मकथा नामक छठा अंग है। इसमें पांच लाख छप्पन्न हजार पद होते हैं।
समीक्षा - दोनों परम्पराओं में विषय वस्तु की कुछ समानता है। यद्यपि तत्त्वार्थवार्तिक में अनेक आख्यान-उपाख्यान कहे हैं, परन्तु जयधवला में ज्ञाताधर्म की 19 धर्मकथाओं के कथन का ही उल्लेख मिलता है जो संभवत: 19 अध्ययनों का द्योतक है। इस अंगसूत्र के शब्दार्थ पर विचार करते हैं तो दिगम्बर परम्परा में इसे नाथधर्मकथा (णाहधम्मकहा) कहते हैं और श्वेताम्बर ज्ञातृधर्मकथा (णायाधम्मकहा) 'नाथ' से दिगम्बर परम्परा के अनुसार नाथवंशीय महावीर का और 'ज्ञात' से श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ज्ञातृवंशीय महावीर का ही बोध होता है। 7. उपासकदशा
__ 'उपासक' का अर्थ है - श्रमण निर्ग्रन्थ की उपासना करने वाला। ऐसे उपासक गृहस्थों के जिसमें चरित्र हों, उसे - 'उपासकदसा' कहते हैं। उपासकदसा में श्रमणोपासकों के नगरादि का वर्णन ज्ञाताधर्मकथांग के समान ही है। विशेष रूप से चार शिक्षाव्रत, तीन गुणव्रत, पांच अणुव्रत, दस प्रकार के प्रत्याख्यान आदि, अष्टमी चतुर्दशी अमावस्या पूर्णिमा को पौषधोपवास, श्रावक की 11 प्रतिमाएं, देवादि कष्ट, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक प्राप्ति, उच्च मनुष्यकुल में पुनर्जन्म, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया आदि का उल्लेख किया गया है। इसका एक श्रुतस्कंध है, दस अध्ययन हैं। संख्यात हजार पद (अर्थात् ग्यारह लाख बावन हजार पद) हैं तथा वर्तमान में 812 श्लोक परिमाण हैं। उपासकदसा में चरण करण की प्ररूपणा है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार 'उपासते' जो आहार आदि दान के द्वारा पूजाविधान के द्वारा संघ की आराधना करते हैं, वे उपासक हैं। वे उपासक दर्शनिक, व्रतिक, सामायिक, पौषधोपवास, सचित्तविरत, रात्रिभक्तव्रत, ब्रह्मचर्य, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतविरत, उद्दिष्टविरत श्रावकों ने इन ग्यारह भेदों (श्रावक की ग्यारह प्रतिमा) से सम्बद्ध व्रत, गुण, शील, आचार, क्रिया, मन्त्र आदि विस्तार से जिममें 'अधीयन्ते' पढे जाते हैं, वह उपासकाध्ययन नामक सातवां अंग है। इसमें ग्यारह लाख सत्तर हजार पद है।
समीक्षा - दोनों परम्पराओं में उपासकों के आचार आदि के वर्णन की अपेक्षा से विषयवस्तु लगभग समान है। दशा शब्द 10 संख्या का बोधक है। इस प्रकार यह अंग-ग्रन्थ स्वनामानुरूप है। धवला और जयधवला में उपासकों की ग्यारह प्रतिमाओं का भी उल्लेख है, परन्तु तत्त्वार्थवार्तिक में ऐसा उल्लेख नहीं है। वर्तमान उपासकदसांग में जिन दस श्रावकों का वर्णन है, वही नाम स्थानांगसूत्र में प्राप्त होते है। लेकिन समवायांग और नंदी में आनन्द आदि 10 उपासकों के नामों का उल्लेख तो नहीं है, परन्तु 10 अध्ययन संख्या से 10 उपासकों की पुष्टि होती है। दिगम्बर साहित्य में इस विषय में कोई उल्लेख नहीं है। 8. अन्तकृद्दशा
अन्तकृत् का अर्थ है-जिन्होंने कर्म या संसार का अन्त किया, ऐसे साधुओं का जिसमें चरित्र हो, उसे 'अन्तकृद्दसा' कहते हैं। अन्तकृद्दसा में संसार का अन्त करने वाले मुनियों के नगर इत्यादि का वर्णन ज्ञाताधर्मकथांग के समान है। इसके एक श्रुतस्कंध में आठ वर्ग हैं। अन आठ वर्गों में 90