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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
अध्ययन हैं। संख्येय हजार ( अर्थात् 23 लाख 4 हजार) पद हैं तथा वर्तमान में 850 श्लोक परिमाण हैं। अंतगडदसा में चरण करण की प्ररूपणा है ।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार जिन्होंने संसार का अन्त कर दिया है, वे अन्तकृत् कहे जाते हैं। प्रत्येक तीर्थं में दस-दस मुनि चार प्रकार के तीव्र उपसर्ग को सहकर इन्द्रादि के द्वारा रचित पूजादि प्रतिहार्यों की सम्भावना को प्राप्त करके कर्मों के क्षय के अनन्तर संसार का अन्त करते हैं, इसलिए उन्हें ‘अन्तकृत्’ कहते हैं। श्री वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कंविल, पालम्ब, अष्टपुत्र ये दश अन्तकृत् हुए। राजवार्तिक में इन दस नामों में भिन्नता है। (नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यम, वाल्मीक, वलीक, निष्कंबल, पालांबष्ठ) इसी प्रकार ऋषभदेव आदि के भी तीर्थ में हुए । एक-एक तीर्थंकर के तीर्थ में नानाप्रकार के दारुण उपसर्गों को सहनकर और प्रातिहार्य अर्थात् अतिशय विशेषों को प्राप्तकर निर्वाण को प्राप्त दस-दस अन्तकृतों का वर्णन हो, वह अंग अन्तकृद्दशांग है। इसमें 23 लाख 28 हजार पद है।
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समीक्षा अन्तकृतदशा शब्द का अर्थ टीकाकार श्री अभयदेव सूरि ने इस प्रकार किया है। 'अन्तो भवान्तः कृतो विहितो यैस्तेऽन्तकृतास्तद् वक्तव्यता प्रतिबद्धा दशाः । दशाध्ययनरूपा ग्रन्थपद्धतय इति अन्तकृतदशाः ।' अर्थात् जिन महापुरुषों ने भव का अन्त कर दिया है, वे 'अन्तकृत' कहलाते हैं। उन महापुरुषों का वर्णन जिन दशा अर्थात् अध्ययनों में किया हो, उन अध्ययनों से युक्त शास्त्र को 'अन्तकृत दशा' कहते हैं । इस सूत्र के प्रथम और अन्तिम वर्ग के दसदस अध्ययन होने से इसको "दशा" कहा है।
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कोई कोई ‘अन्तकृत्' शब्द का ऐसा अर्थ करते हैं कि- 'जो महापुरुष अन्तिम श्वासोच्छ्वास में केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गये हैं उन्हें अन्तकृत् कहते हैं।' किन्तु यह अर्थ शास्त्र - सम्मत नहीं है। क्योंकि केवलज्ञान होते ही तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है । 13 वें गुणस्थान का नाम 'सयोगी केवली गुणस्थान' है। इस गुणस्थान में योगों की प्रवृत्ति रहती है। इसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व की है । तेरहवें गुणस्थान के अन्त में सब योगों का निरोध कर देते हैं। इसके बाद साधक 14वें गुणस्थान में जाते हैं । इसलिये इस गुणस्थान का नाम अयोगी केवली गुणस्थान है। इसकी स्थिति अ, इ, उ, ऋ, लृ ये पांच ह्रस्व अक्षर उच्चारण करने जितनी है। इसलिये अन्तिम श्वासोच्छ्वास में केवलज्ञान उत्पन्न होने की बात कहना ठीक नहीं है । केवलज्ञान होने के बाद 13वें गुणस्थान में कुछ ठहर कर उसके बाद 'अयोगी - केवली' नामक 14वाँ गुणस्थान प्राप्त होता है । अत: टीकाकार ने जो अर्थ किया है, वही ठीक है। इस प्रकार भव (चतुर्गति रूप संसार) का अन्त करने वाली महान् आत्माओं में से कुछ महान् आत्माओं के जीवन का वर्णन इस सूत्र में दिया गया है इसलिये इसे अन्तकृत दशा सूत्र कहते हैं । नंदीचूर्णिकार के अनुसार प्रथम वर्ग में दस अध्ययन हैं, इसलिए यह अंतकृत्दशा है । 364
स्थानांग, तत्त्वार्थवार्तिक, धवला, जयधवला आदि में नमि आदि भगवान् महावीर के समय में हुए दस अन्तकृतों के नाम प्रायः एक समान मिलते हैं। समवायांग, नंदी में इन नामों का उल्लेख नहीं है । दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार इसमें न केवल भगवान् महावीर के समय के 10 अन्तकृतों का वर्णन रहा है, अपितु चौबीसों तीर्थकरों के समय में हुए 10-10 अन्तकृतों का वर्णन रहा है। वर्तमान मे इसमें न तो 10 अध्ययन हैं और न नमि आदि अन्तकृतों का वर्णन है । स्थानांग में इसके 10
364. पढमवग्गे दस अज्झयण त्ति तस्संक्खतो अंतगडदस त्ति । नंदीचूर्णि, पृ. 104
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