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[270] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 6. ज्ञाताधर्मकथा
ज्ञात का अर्थ है - उदाहरण और धर्मकथा का अर्थ है - अहिंसादि का प्रतिपादन करने वाली कथा। ऐसे ज्ञात और धर्मकथाएँ जिस सूत्र में हों, उसे 'ज्ञाता-धर्मकथा' कहते हैं। ज्ञाता धर्मकथा के ज्ञाता विभाग में नायकों के नगर, नगर के उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, नगर में धर्माचार्य का पदार्पण, सेवा में राजा, माता-पिता आदि का गमन, धर्माचार्य की धर्मकथा, नायक की इहलौकिक-पारलौकिक विशिष्ट ऋद्धि, भोगों का परित्याग, दीक्षा का ग्रहण, दीक्षा पर्याय का काल, शास्त्राभ्यास, तपाराधना, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक प्राप्ति, उच्च मनुष्य कुल में पुनर्जन्म, पुनः बोधिलाभ और अन्तक्रिया आदि का वर्णन किया गया है। तीर्थङ्कर भगवान् के विनय मूलक धर्म में दीक्षित होने वाले, संयम की प्रतिज्ञा को पालने में दुर्बल बने हुए, तप नियम तथा उपधान तप रूपी रण में संयम के भार से भग्न चित्त बने हुए घोर परीषहों से पराजित बने हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मोक्ष मार्ग से पराङ्मुख बने हुए, तुच्छ विषय सुखों की आशा के वशीभूत एवं मूछित बने हुए साधु के विविध प्रकार के आचार से शून्य और ज्ञान दर्शन चारित्र की विराधना करने वाले व्यक्तियों का वर्णन किया गया है और यह बतलाया गया है कि वे इस अपार संसार में नाना दुर्गतियों में अनेक प्रकार का दुःख भोगते हुए बहुत काल तक भव भ्रमण करते रहेंगे। इसके विपरीत जो संयम में स्थिर रहते हैं, उसमें पराक्रम करते हैं, विषयों को तुच्छ समझते हैं, घोर उपसर्ग-परीषहों को जीतते हैं। वे आत्म का कल्याण करके मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ज्ञान दर्शन चारित्र की आराधना करने वाले व्यक्तियों का ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में वर्णन किया गया है।
इसमें दो श्रुतस्कन्ध हैं, पहले श्रुतस्कन्ध में 19 अध्ययन हैं। संख्यात हजार पद (अर्थात् 576000 पद) हैं, संख्येय अक्षर हैं तथा वर्तमान में 5450 श्लोक परिणाम हैं। वर्तमान में जो दूसरा श्रुतस्कन्ध उपलब्ध होता है उसमें धर्मकथाओं के द्वारा धर्म का स्वरूप बतलाया गया है। तेईसवें तीर्थङ्कर पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ के पास दीक्षा ली हुई 206 आर्यिकाओं (साध्वियों) का वर्णन है। वे सब चारित्र की विराधक बन गयी थी। अन्तिम समय में उसकी आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल धर्म को प्राप्त हो गयी थी। भवनपतियों के उत्तर और दक्षिण के बीस इन्द्रों के तथा वाणव्यन्तर देवों के दक्षिण और उत्तर दिशा के बत्तीस इन्द्रों की एवं चन्द्र, सूर्य, प्रथम देवलोक के इन्द्र, सौधर्मेन्द्र (शकेन्द्र) तथा दूसरे देवलोक के इन्द्र ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियाँ हुई हैं। वहाँ से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध बुद्ध मुक्त हो जायेंगी । दूसरे श्रुतस्कन्ध के दस वर्ग हैं। उनमें एकएक धर्मकथा में पाँच सौ-पाँच सौ आख्यायिकाएं हैं। एक-एक आख्यायिका में पाँच सौ-पाँच सौ उपाख्यायिकाएं हैं। एक-एक उपाख्यायिका में पाँच सौ-पाँच सौ आख्यायिका+उपाख्यायिका हैं, इस प्रकार एक अरब पच्चीस करोड़ कथाएं हैं। परन्तु अपुनरक्त मात्र सब मिलाकर साढे तीन करोड़ कथाएं हैं, ऐसा कहा है। लेकिन वर्तमान में इतनी कथाओं का वर्णन उपलब्ध नहीं है।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार इसमें नाथ अर्थात् तीनों लोकों के ईश्वरों के स्वामी तीर्थंकर परम भट्टारक की धर्मकथा है। इसमें जीवादि वस्तुओं के स्वभाव का कथन है, घातिकर्मों के क्षय के अनन्तर केवलज्ञान के साथ उत्पन्न तीर्थंकर नामक पुण्यातिशय से जिनकी महिमा बढ़ गयी है, उन तीर्थंकरों की पूर्वाह्न, मध्याह्न, अपराह्न और अर्धरात्रि में छह-छह घड़ी काल पर्यन्त बारह गणों की सभा के मध्य स्वभाव से दिव्यध्वनि की वागरणा होती है, अन्य समय में भी गणधर, इन्द्र और चक्रवर्ती के प्रश्न करने पर वागरणा सुनने को मिलती है। इस प्रकार उत्पन्न हुई दिव्यध्वनि समस्त