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________________ [268] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अजीव-आस्रवादि नौ पदार्थ उसके विषय होने से नौ अर्थ रूप है, पृथिवी-अप्-तेज-वायु-प्रत्येकसाधारण-द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के भेद से दस स्थान वाला है, इस प्रकार जीव का विवेचन हुआ है। सामान्य से पुद्गल एक है, विशेष की अपेक्षा अणु और स्कन्ध के भेद से दो प्रकार है। इस प्रकार पुद्गल आदि के एक से लेकर एक-एक अधिक स्थानों का वर्णन रहता है। इसमें 42 हजार पद हैं। अकलंक ने इसके दो अर्थ किये हैं, पहला अर्थ उपर्युक्तानुसार ही है। दूसरे अर्थ में स्थानाग में एक से लेकर दश तक की गणित का वर्णन है, जैसेकि एक केवलज्ञान, एक मोक्ष, एक आकाश, दो दर्शन, दो ज्ञान इत्यादि। समीक्षा - श्वेताम्बर परम्परा में इसके 10 अध्ययन हैं, ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है, लेकिन दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में ऐसा उल्लेख नहीं है। धवला में जीवादि की 1 से 10 तक संख्या का स्पष्ट उल्लेख होने से ऐसी सम्भावना कर सकते हैं कि इसके 10 अध्ययन रहे होंगे। दोनों परम्पराओं की विषय वस्तु में भिन्नता है। 4. समवायांग जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का सम्यक् निर्णय हो, उसे समवाय (सम्+अवाय) कहते हैं। समवायांग में जीव, अजीव, जीवाजीव, स्व-समय, पर-समय, स्व-पर-समय, लोक, अलोक, लोकालोक, इनका जैसा स्वरूप है, वैसा ही स्वरूप स्वीकार किया गया है। समवायाङ्ग सूत्र में एक दो तीन यावत् एक एक की वृद्धि करते हुए सौ तक और फिर हजार लाख यावत् कोटि पर्यन्त पदार्थों का कथन किया गया है। द्वादशांग गणिपिटक अर्थात् आचाराङ्ग आदि बारह अङ्गसूत्रों का संक्षिप्त विषय का परिचय दिया गया है और परिमाण बताया गया है। इसका एक ही श्रुतस्कंध है, एक ही अध्ययन है। इसमें 1 लाख 44 हजार पद हैं तथा वर्तमान में इसमें 1667 श्लोक प्रमाण अक्षर हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार सामान्यरूप संग्रहनय से द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को लेकर जीवादि पदार्थ जिसमें जाने जाते हैं, वह समवायांग है। उसमें द्रव्य की अपेक्षा धर्मास्तिकाय से अधर्मास्तिकाय समान है, संसारी जीव से संसारी जीव समान है, मुक्त जीव से मुक्त जीव समान है, इत्यादि द्रव्यसमवाय है। क्षेत्र की अपेक्षा सीमन्त नरक, मनुष्यलोक, ऋजुनामक इन्द्रक विमान, सिद्धक्षेत्र प्रदेश से समान हैं। सातवीं नरक का अवधिस्थान नामक इन्द्रकविला, जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि विमान समान है, इत्यादि क्षेत्रसमवाय है। एक समय एक समय के समान है, आवली (आवलिका) आवली के समान है, प्रथम पृथिवी के नारकी, भवनवासी और व्यन्तरों की जघन्य आयु समान है, सातवें नरक के नारकी और सर्वार्थसिद्धि के देवों की उत्कृष्ट आयु समान है, इत्यादि काल समवाय है। केवलज्ञान केवलदर्शन के समान है, इत्यादि भाव समवाय है। इमसें एक लाख चौंसठ हजार पद हैं। समीक्षा - दिगम्बर ग्रन्थों में 100 समवाय तथा श्रुतावतार का उल्लेख नहीं है। वहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से चार प्रकार के समवाय द्वारा सभी पदार्थों के विवेचन का निर्देश है। इस तरह का उल्लेख श्वेताम्बर समवायांग में नहीं मिलता है तथा द्रव्यों की समानता का निरूपण करने वाली शैली वर्तमान समवायांग में उपलब्ध नहीं होती है। पं. कैलाशचन्द्र ने समवायांग और नंदी की तुलना करते हुए कहा है कि समवायांग में द्वादशांग का वर्णन नंदी से प्रायः अक्षरश: मेल खाला है। अत: डॉ. बेबर का कहना था कि हमें यह विश्वास करने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि नन्दी और समवायांग में पाये जाने वाले समान वर्णनों का मूल आधार नन्दी है और यह कार्य समवाय के संग्राहक का या लेखक का होना चाहिए। किन्तु हमारे इस अनुमान में यह कठिनाई है कि नन्दी और समयवाय की
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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