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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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आकार बहुत विशाल हो जाता है। उसका वर्तमान आकार छोटा है। देवर्धिगणी के समय में संभवतः यही आकार रहा, जो आज उपलब्ध है। उन्होंने अठारह हजार पदों का उल्लेख परम्परा से प्राप्त अवधारणा के आधार पर किया है, ऐसा प्रतीत होता है। 2. सूत्रकृतांग
सूत्रकृताङ्ग सूत्र में स्वसमय (स्वसिद्धान्त), परसमय (अन्यतीर्थियों का सिद्धान्त), जीव का स्वरूप, अजीव का स्वरूप, लोक का स्वरूप, अलोक का स्वरूप इत्यादि के साथ ही जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन तत्त्वों का वर्णन किया गया है। नवदीक्षित साधु जिसकी बुद्धि कुदर्शनियों के मत को सुन कर भ्रान्त बन गई है तथा जिसको सहज-स्वाभाविक सन्देह उत्पन्न हो गया है, उन नवदीक्षित साधुओं की पापकारी मलिन बुद्धि को शुद्ध करने के लिए क्रियावादी के 180, अक्रियावादी के 84, अज्ञानवादी के 67 और विनयवादी के 32, ये सब मिला कर 363 पाखण्ड मत का खण्डन करके स्वसिद्धान्त की स्थापना की गई है। अनेक हेतु और दृष्टान्तों द्वारा परमत की नि:सारता बतलाई गई है। इसके दो श्रुतस्कन्ध और तेईस अध्ययन हैं। इसमे 36 हजार पद हैं। वर्तमान सूत्रकृतांग 2100 श्लोक परिमाण अक्षर का है।
दिगम्बर परम्परा के गोम्मटसार में 'सूत्रयति' अर्थात् जो संक्षेप से अर्थ को सूचित करता है, उसे सूत्रकृतांग कहा है। सूत्रकृतांग में ज्ञान के लिए विनय आदि का तथा प्रज्ञापना, कल्प्य अकल्प्य, छेदोपस्थापना, व्यवहार धर्म आदि क्रियाओं सहित स्वसमय और परसमय का निरूपण है। अथवा सूत्रों के द्वारा कृत क्रिया विशेष का जिसमें वर्णन है, वह सूत्रकृतांग है। जयधवला के अनुसार उपर्युक्त विषय के अलावा स्त्रीसबन्धी परिणाम, क्लीबता, अस्फुटत्व अर्थात् मन की बातों को स्पष्ट नहीं कहना, काम का आवेश, विलास, आस्फालन-सुख और पुरुष की इच्छा करना आदि स्त्री के लक्षणों का वर्णन है। इसमें 36000 पद हैं।
समीक्षा - दोनों परम्पराओं में सूत्रकृतांग सूत्र की वर्णित विषय वस्तु में मुख्य रूप से पर सिद्धान्त का खण्डन करते हुए स्व-सिद्धान्त का मण्डन किया गया है। 3. स्थानांग
जिस सूत्र में जीव आदि तत्त्वों का संख्या पूर्वक प्रतिपादन या स्थापन किया जाता है, उसे 'स्थानांग' कहते हैं। स्थानांग में टंक, कूट, शैल, शिखरी, प्राग्भार, कुंड, गुफा, आकर, द्रह, महा नदियाँ, समुद्र, देव, असुरकुमार आदि के भवन, विमान, आकर-खान, सामान्य नदियाँ, निधियाँ, पुरुषों के भेद, स्वर, गोत्र, ज्योतिषी देवों का चलना इत्यादि का निरूपण किया गया है। इस सूत्र में एक-एक की वृद्धि से दस भेदों तक का वर्णन किया गया है। इसका एक ही श्रुतस्कंध है, दस अध्ययन हैं। इसके 72 हजार पद हैं। इसमें वर्तमान में 783 सूत्र तथा 3700 श्लोक प्रमाण अक्षर हैं।
दिगम्बर परम्परा के अनुसार जिसमें एक से लेकर एक-एक बढ़ते हुए स्थान रहते हैं, वह स्थानांग है। उसमें संग्रहनय से आत्मा एक है तथा व्यवहारनय से आत्मा के संसारी एवं मुक्त दो प्रकार हैं, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त होने से त्रिलक्षण है, कर्मवश चारों गतियों में संक्रमण करने से चार संक्रमण से युक्त है। जीव औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक आदि पांच भावों से युक्त है। पूर्व आदि के भेद से संसार अवस्था में छह उपक्रमों से युक्त है, स्याद् अस्ति आदि सप्तभंगी के सद्भाव में सप्तविध है, आठ प्रकार के कर्म आस्रवों से युक्त होने से आठ आस्रवरूप है, जीव361. आ० महाप्रज्ञ, नंदीसूत्र, पृ. 167