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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
दिगम्बर परम्परा का कसायपाहुड, राजवार्तिक, गोम्मटसार58 और धवला59 के आधार पर देकर उसकी समीक्षा प्रस्तुत की जा रही है। 1. आचारांग
तीर्थंकरों द्वारा कही हुई और पहले के सत्पुरुषों द्वारा आचरित ज्ञान आदि की आराधना की विधि को 'आचार' कहते हैं तथा उसके प्रतिपादक ग्रंथ को भी उपचार से 'आचार' कहते हैं। आचारांग में श्रमण निर्ग्रन्थों का आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, शिक्षा, भाषा, अभाषा, चरण, करण, यात्रा-मात्रा-इत्यादि वृत्तियों का निरूपण किया गया है। वह संक्षेप में पाँच प्रकार का है, यथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। इसके दो श्रुतस्कंध हैं। पहले श्रुतस्कंध का नाम ब्रह्मचर्य है और दूसरे श्रुतस्कंध का नाम 'आचारांग' या 'सदाचार' है। पहले श्रुतस्कंध में नौ अध्ययन (1. शस्त्र परिज्ञा 2. लोक विजय 3. शीतोष्णीय 4. सम्यक्त्व 5. आवंती 6. धूत 7. विमोक्ष 8. महापरिज्ञा 9. उपधानश्रुत) और दूसरे श्रुतस्कंध में सोलह अध्ययन (1. पिण्डैषणा 2. शय्या 3. ईर्या 4. भाषा 5. वस्त्रैषणा 6. पात्रैषणा 7. अवग्रह प्रतिमा 8-14. सप्त सप्तिका 15. भावना 16. विमुक्ति) हैं। आचारांग में अठारह हजार पद हैं। यह पद संख्या ब्रह्मचर्याध्ययनात्मक प्रथम श्रुतस्कन्ध की समझी जाती है। आचारांग में चरण करण की प्ररूपणा है। समवायांग में वर्णित आचारांग की विषय वस्तु नंदीसूत्र में वर्णित विषय वस्तु से विस्तृत है। समवायांग में विनय का फल, विहार, चंक्रमण (शरीर के श्रम को दूर करने के लिए इधर-उधर टहलना), आहार-पानी ग्रहण की विधि सहित समिति-गुप्ति आदि विषय का उल्लेख हुआ है।
__ आचाराङ्ग को स्थापना की अपेक्षा से प्रथम अङ्ग कहा है अन्यथा रचना की अपेक्षा तो यह बारहवाँ अङ्ग है। क्योंकि रचना की अपेक्षा 14 पूर्वो की रचना सर्व प्रथम होती है। इसीलिये उनको पूर्व (पहला) कहा है।
दिगम्बर परम्परा के ग्रंथ गोम्मटसार में आचार की परिभाषा देते हुए कहा है कि जिसमें या जिसके द्वारा अच्छी प्रकार से आचरण किया जाता है, मोक्ष मार्ग की आराधना की जाती है, वह आचार है। आचारांग में चारित्र का विधान है। आठ प्रकार की शुद्धि, ईर्या, भाषा आदि पांच समिति, मनोगुप्ति आदि तीन गुप्ति के रूप में आचार का वर्णन है अर्थात् मुनि को यतनापूर्वक चलना चाहिए, यतना पूर्वक बैठना, सोना, भोजन करना और बोलना चाहिए। इस प्रकार आचरण करने से पापकर्म का बंध नहीं होता है। इसमें 18000 पद हैं।
समीक्षा - दोनों परम्पराओं में आचारांग की विषय वस्तु साधु के आचार से सम्बन्धित है। दिगम्बर ग्रन्थों में केवल सामान्य कथन है, जबकि श्वेताम्बर ग्रन्थों में आचारांग के अध्ययन आदि का विशेष वर्णन है। स्थानांग में केवल प्रथम श्रुतस्कंध के नौ अध्ययनों का उल्लेख मिलने से तथा समवायांग में ब्रह्मचर्य के अध्ययनों का पृथक् उल्लेख होने से प्रथम श्रुतस्कंध की प्राचीनता और महत्ता की पुष्टि होती है।
धवला के अनुसार अंगों तथा पूर्वो के पद का परिमाण मध्यम पद के द्वारा होता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने उल्लेख किया है कि मध्यम पद के आधार पर पदों की गणना करने पर आचारांग का
358. कसायपाहुड पृ. 111-120, राजवार्तिक 1.20.12, गोम्मटसार जीवकांड गाथा 356-357 पृ. 592-598 359. धवला पु.1, सूत्र 1.1.2 पृ. 99-107, धवला पुस्तक 9, सू. 4.1.45, पृ. 197-203 360. षट्खण्डागम, पु. 13, पृ. 266