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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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अंगप्रविष्ट के भेद
अंगप्रविष्ट के लिए द्वादशांग के साथ गणिपिटक और श्रुतपुरुष शब्दों का प्रयोग प्राप्त होता है। गणिपिटक में बारह अंग हैं। जो गण या गच्छ का अधिपति होता है, वह गणी या गणधर कहलाता है। तीर्थंकरों की अर्थरूप वाणी के आधार पर गणधरों द्वारा ग्रंथित होने से इन्हें गणिपिटक कहा जाता है। गणिपिटक का अन्य अर्थ है - परिच्छेदों का समूह 50 इन अंग आगमों में अनेक परिच्छेद हैं। बारह अंगों का न्यास किया जाता है। श्रुतपुरुष के अंगस्थानीय आचारांग आदि बारह अंग हैं, यही द्वादशांगी है।52 जैसे पुरुष के हाथ-पैर आदि बारह अंग होते हैं, वैसे ही श्रुत रूप परम पुरुष के आचार आदि बारह अंग हैं। जो श्रुतपुरुष के अंगरूप में व्यवस्थित हैं, वे अंगप्रविष्ट हैं।53
पुरुष के अंग श्रुतपुरुष के अंग दो चरण आचारांग (दाहिना पैर), सूत्रकृतांग (बायाँ पैर) दो जंघा स्थानांग (दाहिनी जंघा), समवायांग (बायी जंघा) दो ऊरु भगवती (दाहिनी उरु), ज्ञाताधर्मकथा (बायी उरु) उदर, पीठ उपासकदशा (नाभि), अन्तकृद्दशा (वक्षस्थल) दो भुजा अनुत्तरौपपातिकदशा (दाहिना बाह), प्रश्नव्याकरण (बायाँ बाहु) ग्रीवा
विपाकश्रुत सिर
दृष्टिवाद (मस्तक) इस प्रकार अंगप्रविष्ट के बारह भेद होते हैं - 1. आचारांग 2. सूत्रकृतांग 3. स्थानांग 4. समवायांग 5. व्याख्याप्रज्ञप्ति अथवा भगवती 6. ज्ञाताधर्मकथांग (नाथधर्मकथा) 7. उपासकदसांग (उपासकाध्ययन) 8. अंतकृद्दसांग (अन्तकृद्दशा) 9. अनुत्तरौपपात्तिकदसा (अनुत्तरौपपादिकदशा) 10. प्रश्नव्याकरण 11. विपाकश्रुत और 12. दृष्टिवाद। इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में अंगों के क्रम में कोई भिन्नता नहीं है, किन्तु नामों में भिन्नता है, दिगम्बर परम्परा में जिस अंग के नाम में अन्तर है उस नाम को ऊपर कोष्ठक में दिया गया है।
श्वेताम्बर परम्परा में उमास्वाति ने द्वादशांगी के नाम की सूचि मात्र दी है। नंदी में अंगप्रविष्ट के बारह भेदों का विस्तार से वर्णन है। समवायांग में अंगप्रविष्ट का वर्णन है, लेकिन अंगबाह्य का वर्णन नहीं है। 54 स्थानांगसूत्र'55 में अंगबाह्य का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद ने भी अंगों की सूचि दी है। परंतु दृष्टिवाद के विभाग का और 14 पूर्वो के नामों का उल्लेख किया है। जबकि अकलंक ने अंगों का संक्षिप्त वर्णन करते हुए दृष्टिवाद का विस्तार से वर्णन किया है।56 श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में मान्य द्वादशांगों के स्वरूप का संक्षिप्त परिचय
यहाँ पहले श्वेताम्बर परम्परा का वर्णन समवायांगसूत्र और नंदीसूत्र के आधार से तथा 350. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 193 351. पायदुग जंघोरु गातदुगद्धं तु दो य बाहूयो। गीवा सिंर च पुरिसो बारस अंगो सुतविसिट्ठो।। - नंदीचूर्णि पृ. 88 352. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 193 3 53. मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 203 354. समवायांगसूत्र, पृ. 171-191 355. सुयणाणे दुविहे पण्णत्ते तं जहा - अंगपविढे चेव, अंगबाहिरे चेव। - स्थानांगसूत्र पृ. 37 356. तत्वार्थभाष्य 1.20, सर्वार्थसिद्धि 1.20, कसायपाहुड पृ. 111, राजवार्तिक 1.20.12, धवला पु.1, सूत्र 1.1.2 पृ. 99,
धवला पुस्तक 9, सू. 4.1.45, पृ. 197, गोम्मटसार जीवकांड गाथा 356-357 पृ. 592 357. समवायांगसूत्र, पृ. 171-191, पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 231-258