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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
विद्यमानता में हजारों लाखों शिष्य होने पर भी उनकी संख्या के तुल्य प्रकीर्णक नहीं बताकर साधुओं की उत्कृष्ट सम्पदा के तुल्य बताये गये हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि व्यक्ति की विद्यामानता में ही उनका संग्रह बुद्धि पर माना गया है। देहावसान के बाद उनकी विद्यमानता नहीं होने से उनका प्रकीर्णक भी नहीं रहता है। उत्कृष्ट सम्पदा जितने ही प्रकीर्णक बताये गये हैं । तीर्थंकर के द्वारा मान्यता प्राप्त होने जाने से उन्हें कालिक ही कहा गया है। टीका में अलग-अलग प्रकार के अर्थ मिलते हैं।
2. दूसरे मत के अनुसार जिन तीर्थंकरों के जितने शिष्य औत्पत्तिकी, वैनेयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी- इन चार बुद्धि सहित थे, उन तीर्थंकरों के उतने ही प्रकीर्णक ग्रन्थ थे । यहाँ पर चार बुद्धियों से युक्त इस विशेषण से प्रत्येक बुद्ध का ग्रहण हुआ है । यहाँ पर मात्र प्रत्येक बुद्धों के रचितों को ही प्रकीर्णक समझना चाहिए। इसका कारण प्रत्येक बुद्धों का परिमाण प्रकीर्णक के परिमाम से ही प्रतिपादित किया गया है।
आगमकालीन मत
आगमकालीन युग में अंगों के सिवाय सभी प्रकीर्णक ही माने जाते थे। वर्तमान में जो आगम श्रेणी में नहीं आते हैं, उन्हीं को प्रकीर्णक कहा जाता है । किन्तु आगमकालीन युग में ऐसा नहीं था। क्योंकि उत्तराध्यनसूत्र अध्ययन 28 गाथा 23 में 'इक्कारस अंगाई पइण्णगं दिट्ठिवाओ य' अर्थात् ग्यारह अंग, प्रकीर्णक सूत्र और दृष्टिवाद श्रुतज्ञान है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि बारह अंगों के सिवाय सभी प्रकीर्णक हैं। स्थानांगसूत्र 40 के चौथे स्थान के पहले उद्देशक में चार अंगबाह्य प्रज्ञप्तियां बताई गयी हैं, यथा चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति । इनमें सूर्यप्रज्ञप्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति पंचम और षष्ठ अंग के उपांग रूप हैं और शेष दोनों प्रकीर्णक रूप कही गई हैं। नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि के समय तक प्रकीर्णक ही थे। 41 उपर्युक्त पाठों से यह सिद्ध होता है कि आगम हो या प्रकीर्णक, सभी अंगबाह्य रूप एक ही नाम से कहे जाते हैं। आगे जाकर अमुक-अमुक शब्द अमुक के लिए रूढ़ हो गये। नंदीचूर्णिकार के अनुसार प्रकीर्णक कालिकश्रुत और उत्कालिक श्रुत दोनों प्रकार के होते हैं। 342
नंदी सूत्र में छह प्रकीर्णकों के नाम प्राप्त होते हैं - देवेन्द्रस्तव. तंदुलवैचारिक, चंद्रवेध्यक, गणिविद्या, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान । चूर्णिकार ने कुछेक प्रकीर्णकों का विवेचन किया है । 343 वर्तमान में प्रकीर्णकों की संख्या
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प्रकीर्णक की सूचि भिन्न-भिन्न ग्रंथों में भिन्न-भिन्न प्रकार की मिलती है। इस विषय में मुनि पुण्यविजयजी ने विस्तार से लिखा है।344 समान्यतया प्रकीर्णक दस माने जाते हैं, किन्तु इनकी कोई निश्चित नामावली नहीं होने के कारण ये नाम कई प्रकार के होते हैं। इन सबका समावेश किया जाये, तो कुल बाईस प्रकीर्णकों के नाम प्राप्त होते हैं । 45 निम्न ग्रंथों में प्रकीर्णकों को के दस-दस नाम प्राप्त होते हैं, यथा आगमयुग का जैन दर्शन 346, तंदुलवेयालियपइण्णयं 347, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास की पीठिका में 48 तथा जैन साहित्य का बृहद् इतिहास 349 में 11 प्रकीर्णकों के नाम प्राप्त होते हैं। लेकिन इन सभी ग्रंथों में संख्या समान होते हुए भी प्रकीर्णकों के नामों में भिन्नता है।
339. नंदीसूत्र, पृ. 164
340. स्थानांगसूत्र, पृ. 255
341. तत्र सूरप्रज्ञप्तिजम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती पंचमषष्ठंगयोरूपांगभूते, इतरे तु प्रकीर्णक रूप इति । स्थानांगवृत्ति, पृ. 224 342. पइण्णगज्झयणा वि सव्वे कालियउक्कालिया । नंदीचूर्णि पृ. 90
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343. महाप्रज्ञ, नंदी परिशिष्ट 2, जोग नंदी सूत्र 8
345. आचार्य महाप्रज्ञ, नंदीसूत्र पृ. 160
347. तंदुलवेयालियपइण्णयं, भूमिका, पृ. 4
349. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 2, पृ. 345-363
344. पइण्णयसुत्ताई, पृ. 18 346. आगमयुग का जैन दर्शन, पृ. 26
348. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, पीठिका, पृ. 710-712