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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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आवश्यव्यतिरिक्त ऐसे भेदों का नामनिर्देश करने के अलावा अंगबाह्य के कालिक उत्कालिक भेदों का उल्लेख किया है।34
बारह अंग सूत्र भी कालिक हैं। आवश्यक सूत्र 1, उत्कालिक सूत्र 29, कालिक सूत्र 35/36, अंग सूत्र 12, इन सबको मिलाने पर 76/77 आगमों के नाम प्राप्त होते हैं। दिगम्बर परम्परा में अंगबाह्य के भेद ।
जयधवला के अनुसार आवश्यक एक श्रुतस्कंध नहीं है। उसमें अंगबाह्य के चौदह प्रकार बताये हैं, यथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प्यव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धका। इनके स्वरूप का वर्णन कषायपाहुड, धवला, गोम्मटसार335 आदि में विस्तार से है। इस प्रकार दिगम्बर परम्परा में अंगबाह्य के चौदह भेदों का उल्लेख है। तत्त्वार्थभाष्य में अंगबाह्य के तेरह (सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायव्युत्सर्ग, प्रत्याख्यान, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, दशा, कल्प्य, व्यवहार, निशीथ, ऋषिभाषितत) ग्रन्थों का उल्लेख है।36 नंदीसूत्र में अधिक भेदों का उल्लेख है। तत्त्वार्थसूत्र में
आवश्यक के भेदों का नामनिर्देश किया गया है। प्रकीर्णक ग्रन्थ
__ नंदीचूर्णिकार के अनुसार अर्हत् के द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण कर श्रमण जिनका नि!हण करते हैं, वे प्रकीर्णक कहलाते हैं। अथवा श्रुत का अनुसरण कर अपने वाणी कौशल से धर्मोपदेश आदि में जिस विषय का प्रतिपादन करते हैं, वह प्रकीर्णक है। इस प्रकार चूर्णि में प्रकीर्णक को दो प्रकार से परिभाषित किया गया है।
प्रकीर्णककार अपरिमित है, इसलिए प्रकीर्णक अपरिमित हैं, किन्तु इस सूत्र में प्रकीर्णकों के परिमाण के आधार पर प्रत्येकबुद्धों की संख्या का नियमन किया गया है, अतः यहाँ प्रत्येक बुद्धों द्वारा प्रणीत अध्यन ही प्रकीर्णक के रूप में ग्राह्य हैं।38 चूर्णि के अनुसार प्रकीर्णकों के रचनाकार प्रत्येक बुद्ध होते हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की परम्पराएं प्राप्त होती हैं। नंदीसूत्र में प्रकीर्णक की संख्या के विषय में दो मत
1. उत्कृष्ट श्रमण संख्या की अपेक्षा-अर्हन्त भगवन्त श्री ऋषभदेव स्वामी के 84 हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ थे, क्योंकि उनकी विद्यमानता में उनके शासन में एक समय में उत्कृष्ट 84 हजार साधु रहे। दूसरे अजितनाथ से लेकर तेईसवें पार्श्वनाथ तक के बाईस तीर्थंकरों के संख्यात संख्यात प्रकीर्णक ग्रन्थ थे, क्योंकि उनकी विद्यमानता में उनके शासन में एक समय में उत्कृष्ट संख्यातसंख्यात साधु रहे थे। भगवान् वर्द्धमान स्वामी की विद्यमानता में उनके शासन में एक समय में उत्कृष्ट 14 हजार साधु रहे अतः उनके समय 14 हजार प्रकीर्णक थे।
प्रत्येक तीर्थकर के शिष्य तीर्थंकर का उपदेश सुनकर उनके आशयों को ग्रहण करके व्यवस्थित रूप में अपनी बुद्धि पर अंकित कर देते हैं, उन्हीं अंकनों को यहाँ प्रकीर्णक कहा गया है। तीर्थंकर की 334. तदनेकविधं कालिकोत्कालिकादिविकल्पात्। - राजवार्तिक 1.20.14 335. कसायपाहुड 1.1.1 पृ. 89-111, धवला पु. 1, सू. 1.1.2, पृ. 96-98, धवला पु. 9, सू. 4.1.45, पृ. 188,
गोम्मटसार जीवकांड भाग 2, गाथा 367-368 336. तत्त्वार्थधिगमसूत्र 1.20 पृ. 90 337. जतो ते चतुरासीति समणसहस्सा अरहंतमग्गउवदिह्र जं सुतमणुसारित्ता किंचि णिजूहंते ते सव्वे पइण्णगा, अहवा सुत्तमणुस्सरतो
अप्पणो वयणकोसल्लेण जं धम्मदेसणादिसु भासते तं सव्वं पइण्णगं। - नंदीचूर्णि पृ. 90, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 208 338. नंदीचूर्णि, पृ. 90