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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
होता है। उसका आरंभ और व्यवच्छेद नहीं होता, कारण कि अनादि भूतकाल में अनेक जीव सम्यक्त्व, शिक्षण आदि से आचारांग आदि सम्यक्श्रुत प्राप्त करते ही आये हैं और अनन्त भविष्यकाल तक प्राप्त करते ही रहेंगे।
शंका - श्रुत को सादि-सान्त बताया है, तो श्रुत का नाश कैसे होता है? श्रुत जीव से भिन्न है या अभिन्न। यदि भिन्न हो तो श्रत का नाश हो सकता है। आप श्रत को जीव से भिन्न मान रहे हैं तो जैसे कि अंधा मनुष्य दीपक के प्रकाश से भी पदार्थ (अर्थ) को देख नहीं सकता है। उसी प्रकार श्रुतज्ञान होते हुए भी जीव श्रुतस्वभाव से रहित होने से नित्य अज्ञानी ही होता है अर्थात् श्रुत की उपस्थिति में भी अज्ञान का प्रसंग आ जाएगा 66
समाधान - श्रुतज्ञान अजीव स्वभाव वाला नहीं है। लेकिन जीव स्वभाव वाला होने से अवश्य ही जीव है, लेकिन जीव श्रुत ही है, ऐसा नहीं। क्योंकि जीव को श्रुतज्ञान होता है, श्रुतअज्ञान होता है, मति-अवधि-मन:पर्यव, केवलज्ञान अथवा मतिअज्ञान और विभंगज्ञान होता है।67
शंका - श्रुत जीव का स्वभाव होने से जीव है। तब श्रुत का नाश होने पर जीव का भी नाश प्राप्त होगा। समाधान - जीव उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य धर्मवाला होने से उसका सर्वथा नाश नहीं होता है। क्योंकि एक ओर से श्रुतज्ञानपर्याय का नाश होते हुए भी दूसरी ओर से श्रुतअज्ञानपर्याय का उद्भव होता है। जीव अन्य अनन्त पर्यायों से भी युक्त होने से नित्य ध्रुव रहता है।268
केवल आत्मा ही उत्पाद, व्यय और ध्रुव स्वभाव वाली है, ऐसा नहीं, लेकिन संसार में घट, पट, स्तम्भ आदि सभी वस्तुएं ऐसे ही स्वभाव वाली हैं। क्योंकि सभी वस्तुएं प्रत्येक समय उत्पन्न होती हैं, नाश को प्राप्त होती हैं और ध्रुवपने से नित्य भी रहती हैं। इस प्रकार से वस्तुस्वभाव होने से ही सुख-दुःख, बंध, मोक्ष आदि का सद्भाव घटित होता है, इसके अलावा घटित नहीं होता है।69 इस प्रसंग पर टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र ने वस्तु को एकांत नित्य, सहकारी और एकांत अनित्य मानने वालों का विस्तार के खंडन किया है 70
क्षेत्र से - 1. पाँच भरत, पाँच ऐरवत की अपेक्षा सम्यक्श्रुत सादि सपर्यवसित है, क्योंकि इन क्षेत्रों में सम्यक्श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद होता है। इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप कालचक्र सदा घूमता रहता है। जिससे उन-उन आरों में श्रुत की आदि होकर उन-उन आरों में श्रुत का व्यवच्छेद हो जाता है। जैसे कि इन क्षेत्रों में प्रथम तीर्थंकर के समय में द्वादशांगी रूप श्रुत की आदि होती है और अंतिम तीर्थंकर का शासन विच्छेद होते ही श्रुत का भी अन्त हो जाता है।
2. पाँच महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा सम्यक्श्रुत अनादि अपर्यवसित है, क्योंकि इन क्षेत्रों में सम्यक्श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद नहीं होता, क्योंकि इन क्षेत्रों में उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप कालचक्र भी नहीं घूमता। वहाँ सदा चौथे दुःषम-सुषमा आरे के समान अवस्थित काल रहता है। जिससे श्रुत का शाश्वत प्रवर्तन चालू रहता है।
काल से - 1. भरत ऐवत क्षेत्र में काल की अपेक्षा सम्यक्श्रुत सादि सपर्यवसित है, क्योंकि इन कालों में सम्यक्श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद होता है। यथा-उत्सर्पिणी में जब
266. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 540-541 268. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 543 270. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 544 की बृहवृत्ति
267. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 542 269. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 544