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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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दुःषम-सुषमा नामक तीसरा आरा होता है तब से तीर्थंकर जन्म लेते हैं और आचारांग आदि श्रुतज्ञान का प्रवर्तन करते हैं, तब सम्यक्श्रुत का आरंभ होता है और जब सुषम-दुःषमा नामक चौथा आरा कुछ बीत जाता है और तीर्थंकरादि का अभाव हो जाता है, तब आचारांग आदि श्रुतज्ञान का व्यवच्छेद हो जाता है तथा अवसर्पिणी में जब सुषम-दुःषमा नामक तीसरा आरा कुछ शेष रहता है, तब से तीर्थंकर जन्म लेते हैं और आचारांग आदि श्रुतज्ञान का प्रवर्तन करते हैं, तब सम्यक्श्रुत का आरंभ होता है तथा दुषमा नामक पाँचवें आरे में जब साधु आदि का अभाव हो जाता है, तब आचारांग आदि श्रुतज्ञान का विच्छेद हो जाता है।
2. 'नहीं-उत्सर्पिणी, नहीं-अवसर्पिणी' रूप महाविदेह क्षेत्र के काल की अपेक्षा सम्यक्श्रुत अनादि अपर्यवसित है, क्योंकि इसमें सम्यक्श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद नहीं होता। महाविदेह क्षेत्र में सदा चौथे दुःषम-सुषमा आरे के समान काल रहता है, अतएव वहाँ सदा श्रुतप्रदाता तीर्थंकरादि का सद्भाव रहता है और श्रुत सीखने वाले साधु आदि की विद्यमानता रहती है।
भाव से - 1. अरिहंत कथित भावों का जब-जब निरूपण आरंभ किया जाता है, तब-तब उन-उन प्रारंभिक तथा अन्तिम भावों की अपेक्षा सम्यक्श्रुत सादि सपर्यवसित है अर्थात् उपयोग की अपेक्षा सम्यक्श्रुत सादि सपर्यवसित है, क्योंकि उपयोग का आरंभ और व्यवच्छेद होता है। जैसेजब जिनेश्वर प्रज्ञप्त भावों का कथन आरंभ किया जाता है, तब उन भावों के प्रति उपयोग का आरंभ होता है और जब उन भावों का कथन समाप्त किया जाता है, तब उन भावों के प्रति उपयोग का व्यवच्छेद हो जाता है ।
जिनभद्रगणि के अनुसार प्रज्ञापक की अपेक्षा द्वादशांग सादि सपर्यवसित होता है। इसके चार हेतु बताये हैं - 1. श्रुत का उपयोग 2. स्वर, ध्वनि, 3. प्रयत्न - तालु आदि का व्यापार 4. आसन (अंगविन्यास) ये धर्म प्ररूपक गुरु में होते हैं। प्रज्ञापक के भाव की पर्याय बदलते रहते हैं। इस परिवर्तन की अपेक्षा द्वादशांग को सादि सपर्यवसित कहा जाता है। प्रज्ञापनीय भाव की अपेक्षा से भी द्वादशांग सादि सपर्यवसित होता है। इसके अनेक हेत बताये हैं, यथा गति, स्थिति, भेद, संघात वर्ण आदि शब्दादि धर्म प्ररूपणीय पदार्थों में होते है। ये सभी धर्म अनित्य होते हैं क्योंकि प्ररूपणीय पदार्थ पर्याय की दृष्टि से उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं और अभिधेय अर्थ की गति, स्थिति. एक प्रदेशादि अवगाह और एक वर्ण आदि पर्याय में बदलता रहता है, इससे श्रुत सादिसपर्यवसित है 72 ऐसा ही उल्लेख नंदीचूर्णि (पृ.81), हारिभद्रीय नंदीवृत्ति (पृ.84), मलयगिरि वृत्ति (पृ.193) में प्राप्त होता है।
2. क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा श्रुत अनादि-अपर्यवसित है। क्योंकि विविध जीवों की अपेक्षा से कोई न कोई जीव श्रुतज्ञान में होता ही है। महाविदेह में प्रवाह की अपेक्षा से श्रुत नित्य होने से और आकाशादि अभिधेय नित्य होने से श्रुत अनादि-अपर्यवसित है। नंदी के टीकाकारों ने आकाशादि अभिधेय के सिवाय शेष वर्णन जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार ही किया है 73
श्रुत के पहले मति होता है इस नियम से तो मति के बाद श्रुत की प्राप्ति होने से वह हमेशा सादि बना रहता है और जिसकी आदि है उसका अंत होने से उसका अनादि-अपर्यवसित भंग 271. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 546 एवं टीका 272. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 546 एवं टीका 273. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 548, नंदीचूर्णि पृ. 82, हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 86, मलयगिरि, नंदीवृत्ति, पृ. 198