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[252] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन (वेदन) होता है और वेदक समकित में शुद्ध पुंज के अंतिम अंश का अनुभव होता है। यही दोनों में अन्तर है। वास्तविक रूप से तो वेदक समकित भी क्षयोपशम समकित ही है। अन्य स्थलों पर सम्यक्त्व के तीन ही प्रकार प्राप्त होते हैं -क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक। वहाँ पर वेदक का समावेश क्षयोपशम समकित में किया जाता है।255 5. क्षायिक समकित
दर्शन मोहनीय की सातों प्रकृतियों (अन्तानुबंधी चौक, मिथ्यात्व, मिश्र और समकित मोहनीय) का क्षय होने पर जो तत्त्वश्रद्धान होता है, वह क्षायिक समकित है 56
इस प्रकार पांच प्रकार के सम्यक्त्वों में से किसी भी सम्यक्त्व वाले द्वारा ग्रहण किया हुआ श्रुत सम्यक् श्रुत और मिथ्यात्व से ग्रहण किया हुआ श्रुत मिथ्याश्रुत है।57 मत्यादि पांच ज्ञानों में कितने ज्ञान मिथ्यारूप होते हैं __ शंका - जिस प्रकार श्रुत में कुछ सम्यक्श्रुत है और कुछ मिथ्याश्रुत है, इसी प्रकार शेष चार ज्ञानों में मिथ्यात्व के उदय से किसमें विपर्यास (विपरीत, अज्ञान रूप) होता है और किसमें नहीं? समाधान - चौदहपूर्वी से सम्पूर्ण दशपूर्वी तक का श्रुत नियम से सम्यक् श्रुत है। भिन्न दशपूर्वी (सम्पूर्ण दशपूर्व से कम) से सामायिक पर्यन्त सभी श्रुतस्थान सम्यग्दृष्टि के लिए सम्यक् श्रुत और मिथ्यादृष्टि के लिए मिथ्याश्रुत है। श्रुत के अलावा चार ज्ञानों में से मति और अवधिज्ञान मिथ्यात्व के उदय से विपरीतपने अर्थात् अज्ञान (मिथ्या) रूप होते हैं, इनको मति अज्ञान और विभंगज्ञान कहा जाता है। लेकिन मन:पर्याय और केवलज्ञान का कभी भी विपर्यास नहीं होता है। क्योंकि मन:पर्यवज्ञान अप्रमत्त साधु और केवलज्ञान चार घातिकर्म नष्ट केवली के होता है। अतः मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी के मिथ्यात्व का उदय नहीं होता है।258 सम्यक्त्व और श्रुतज्ञान में अन्तर
सम्यक्त्वपूर्वक ग्रहण किया हुआ श्रुत सम्यक् श्रुत है। अतः यहाँ सम्यक्त्व और सम्यक्त्व श्रुत में अन्तर स्पष्ट करना आवश्यक है। जिस प्रकार ज्ञान और दर्शन में थोड़ा-सा भेद है, अपाय और धारणा बोधात्मक होने से ज्ञान रूप हैं और अवग्रह तथा ईहा सामान्य बोधात्मक होने से दर्शन रूप हैं। उसी प्रकार जीवादितत्त्वों में श्रद्धा (रुचि) सम्यक्त्व है और जिससे जीवादि तत्त्व की श्रद्धा होती है, वह श्रुतज्ञान है अर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से तत्त्व श्रद्धात्मक रुचि उत्पन्न होती है
और उस रुचि से जीवादि तत्त्व श्रद्धात्मक विशिष्ट श्रुत होता है। शंका - इससे तो फिर विशिष्ट तत्त्वावबोध श्रुत ही सम्यक्त्व होगा, अन्य नहीं। समाधान - ज्ञान और दर्शन में वस्तु अवबोध रूप जानना समान होते हुए भी विशेष ग्राहक और सामान्य ग्राहक से भेद है। उसी प्रकार शुद्धतत्त्वावबोध रूप श्रुत में तत्त्व श्रद्धान अंश सम्यक्त्व है और यह सम्यक्त्व श्रुत तत्त्वबोध श्रुत ज्ञान है। यही दोनों में अन्तर है। दूसरा अन्तर इनमें कार्य और कारण की अपेक्षा से है, जैसे कि दीपक और प्रकाश एक साथ ही उत्पन्न होते हुए भी उनमें कार्य और कारण से भेद है, वैसे ही सम्यक्त्व और श्रुतज्ञान एक साथ होते हैं फिर भी सम्यक्त्व श्रुतज्ञान का कारण है।59
255. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 533 एवं बृहद्वृत्ति 257. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 533 एवं बृहवृत्ति 259. विशेषावश्यकभाष्या गाथा 535-536 एवं बृहद्वृत्ति
256. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 528 एवं बृहद्वृत्ति 258. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 534 एवं बृहद्वृत्ति