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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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पूज्यपाद के मत में संज्ञा का अर्थ - 1. हित प्राप्ति और अहित के त्याग की परीक्षा, 2. नाम 3. ज्ञान 4. आहारादिसंज्ञा की अभिलाषा। नाम, ज्ञान और आहारादि संज्ञा से युक्त जीवों का संज्ञी में ग्रहण नहीं हो, इसके लिए समनस्क को ही संज्ञी कहा है। इससे गर्भज, अंडज, मूर्च्छित और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में हित-अहित की परीक्षा का अभाव होने पर भी मन की उपस्थिति के कारण इन जीवों को भी संज्ञी माना है।26 पूज्यपाद के विचार नंदीसूत्र में वर्णित हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा के अनुरूप प्रतीत होते हैं।
विद्यानंद कहते हैं कि अमनस्क जीवों के भी सामान्य स्मरण, सामान्य धारणा, सामान्य अवाय और सामान्य अवग्रह आदि होते हैं। इस प्रकरण में विशेष रूप से शिक्षा, क्रिया कलाप का ही ग्रहण संज्ञा में किया है। अत: संज्ञा में सामान्य रूप से हुए ईहा-अपोह का समावेश नहीं हो सकता है 27 इस परिस्थिति में भाव मन ही इसका व्यावर्तक लक्षण है। यह व्याख्या भी नंदीसूत्र की हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा के अनुरूप है।
इस प्रकार जैनाचार्यो के द्वारा किये गये विचार के अनुसार संज्ञी और असंज्ञी के संदर्भ में संज्ञा शब्द अर्थ नाम, ज्ञान, आहारादि संज्ञा28 सम्प्रधारण संज्ञा रूप मनोव्यापार 29 आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ और अन्त में मन सहित जीव संज्ञी और मन रहित जीव असंज्ञी इस अर्थ में संज्ञा का अर्थ स्थिर हो गया है।
सारांश - उक्त व्याख्याओं से संज्ञी जीव तीन प्रकार के होते हैं, किन्तु यहां पर मन का जो अधिकारी है, वह दीर्घकालिकीसंज्ञा की अपेक्षा से है। दीर्घकालिकीसंज्ञा ही मन है। मनोलब्धि सम्पन्न जीव मनोवर्गणा के अनन्त स्कंन्धों को ग्रहण कर मनन करता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है। यह संज्ञा मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न होती है। अतः जिस जीव में दीर्घकालिकी संज्ञा का विकास होता है, वह संज्ञी (समनस्क) और जिसमें इसका विकास नहीं होता, वह असंज्ञी (अमनस्क) है 37 संज्ञा संज्ञा का अर्थ
असंज्ञी हेतुवादोपदेशिकी इष्ट में प्रवृति और
द्वीन्द्रिय से
एकेन्द्रिय अनिष्ट से निवृति की शक्ति समूर्छिम पंचेन्द्रिय दीर्धकालोपदेशिकी वर्तमान काल के बाद सुदीर्घ संज्ञी पंचेन्द्रिय द्वीन्द्रिय से भूतभविष्य कालीन विचार
असंज्ञी पंचेन्द्रिय दृष्टिवादोपदेशिका भूतकालिक स्मरण और
सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि भविष्यकालिक चिंतनयुक्त सम्यग्ज्ञान दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बर परम्परा से भेद है। उसमें गर्भज-तिर्यंचों को संज्ञी नहीं मानकर संज्ञी और असंज्ञी माना गया है। इसी प्रकार सम्मूर्च्छिम तिर्यंच को केवल असंज्ञी नहीं मानकर संज्ञीअसंज्ञी उभय रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अलावा श्वेताम्बर परम्परा में हेतुवादोपदेशिकी आदि संज्ञा के तीन भेद दिगम्बर परम्परा के प्रमुख ग्रंथों में दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।33 226, सवार्थसिद्धि 2.24, तत्त्वार्थराजवार्तिक 2.24.5
227. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 2.24.2 228. सर्वाथसिद्धि 2.24
229. तत्वार्थभाष्य 2.25 230. इह दीहकालिगी कालिगित्ति सण्णा जया सुदीहंपि। संभरइ भूयमिस्सं चिंतेइ य किह णु कायव्वं ।।
कालियसण्णित्ति तओ जस्स तई सो य जो मणोजोग्गे। खंधेऽणंते घेत्तुं मन्नइ तल्लद्धिसंपण्णो।। विश०भाष्य, गाथा 508-509 231. श्री भिक्षु आगम शब्द कोश भाग 1, पृ. 509 232. 'गब्भभवे सम्मुच्छे दुतिगं भोगथलखचरगे दोद्दी' - गोम्मटसार (जीवकांड) भाग 1, गाथा 79 233. कर्मग्रंथ भाग 4, पृ. 39
संज्ञी