________________
[246]
विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
क्षयोपशम से संज्ञीश्रुत की प्राप्ति होती है । मिथ्यात्व मोहनीय के उदय और श्रुताज्ञानावरण के क्षयोपशम से अंसज्ञीश्रुत की प्राप्ति होती है । 221
आवश्यकचूर्णि में कहा है कि जिन कर्मों से संज्ञीभाव आवृत्त है, उनमें से कुछ का क्षय और कुछ का उपशम अर्थात् क्षयोपशम होने से संज्ञी भाव प्राप्त होता है । वह संज्ञी जीव शब्द को सुनकर पूर्वापर का बोध करता है, वह दृष्टिवादोपदेश संज्ञीश्रुत है । 22
पं. सुखलाल संघवी ने कर्मग्रंथ भाग चार के पृ. 38-39 पर संज्ञा के चार विभाग किये हैं 1. पहले विभाग के अनुसार जिनका ज्ञान अत्यन्त अल्प विकसित है। यह विकास इतना अल्प है कि इस विकास से युक्त जीव, मूर्च्छित के समान चेष्टारहित होते हैं। इस अव्यक्ततर चैतन्य की ओघसंज्ञा कही गई है। एकेन्द्रिय जीव ओघसंज्ञा वाले ही होते हैं। शेष तीन विभाग उपर्युक्तानुसार ही है। आगमों में जहाँ कही पर संज्ञी - असंज्ञी का उल्लेख हुआ है, वहाँ पर असंज्ञी का अर्थ ओघसंज्ञावाले और हेतुवादोपदेशिकी संज्ञावाले जीवों से है तथा संज्ञी का अर्थ दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा वाले जीवों से है ।
संज्ञाओं के स्वामी
पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु और वनस्पति- इन पांचों के ओघ संज्ञा होती है । द्वीन्द्रिय आदि में हेतु (हेतूपदेश) संज्ञा तथा देव, नारक और गर्भज प्राणियों में दीर्घकालिकी संज्ञा होती है। सम्यक्दृष्टि छद्मस्थ के दृष्टिवाद संज्ञा होती है । अतः उसके श्रुतज्ञान को संज्ञीश्रुत कहा गया है । मति - श्रुत के व्यापार से विमुक्त होने से केवली संज्ञातीत होते हैं 1223
संज्ञाओं का क्रम
उपर्युक्त तीन संज्ञाओं में हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा अविशुद्ध होती है। उससे विशुद्ध दीर्घकालोपदेशिका संज्ञा और उससे विशुद्धतम दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा होती है। नंदीसूत्र में दीर्घकालोपदेशिकी, हेतुवादोपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी ऐसा विपरीत क्रम क्यों दिया है? जिनभद्रगणि इसके समाधान में कहते हैं कि आगमों में जो संज्ञी और असंज्ञी जीवों का वर्णन प्राप्त होता है, वह दीर्घकालिक संज्ञा के आधार पर किया गया है। जिस जीव में यह संज्ञा विकसित होती है, वे संज्ञी और जिसमें यह संज्ञा विकसित नहीं हो वे असंज्ञी जीव कहलाते हैं। जबकि दृष्टिवादोपदेशिकी को अंत में रखने का कारण यह है कि वह तीनों संज्ञाओं में प्रधान । इसलिए उपर्युक्त विशुद्धि का क्रम छोड़कर नंदीसूत्र में दीर्घकालोपदेशिकी, हेतुवादोपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा का क्रम दिया गया है 1224
-
तत्त्वार्थसूत्र की परंपरा
तत्त्वार्थसूत्र की परंपरा में संज्ञी और असंज्ञी श्रुत का उल्लेख नहीं है । किन्तु संज्ञी के सम्बन्ध में विचार किया गया है। उमास्वाति के अनुसार समनस्क जीव संज्ञी और अमनस्क जीव असंज्ञी होते हैं। उमास्वाति संज्ञा का अर्थ ईहा अपोह युक्त, गुणदोष की विचारणा करते हुए सम्प्रधारण करते हैं और सभी नारक, देव, गर्भज मनुष्य और तिर्यंच को संज्ञी कहते हैं। यह संज्ञा नंदीसूत्र में वर्णित दीर्घकालिकी संज्ञा के समान है । 225
221. नंदीचूर्णि, पृ. 74
223. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 523-524
225. सम्प्रधारणसंज्ञायां संज्ञिनो जीवाः समनस्का भवन्ति । तत्वार्थभाष्य 2.25
222. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 31
224. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 525