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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार - जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आम्रव-संवर-निर्जरा, बंध, मोक्ष, इन नव तत्त्वों का सम्यग् यथार्थज्ञान और रुचि रूप जो सम्यग्दर्शन है, वह दृष्टिवाद (सम्यग्दर्शन) की अपेक्षा संज्ञा है। जिन जीवों में यह दृष्टिवाद संज्ञा पायी जाती, उन जीवों का सम्यग् श्रुत, दृष्टिवाद संज्ञा की अपेक्षा संज्ञीश्रुत है तथा जिन जीवों में यह दृष्टिवाद संज्ञा नहीं पायी जाती, उन जीवों का मिथ्याश्रुत, दृष्टिवाद संज्ञा की अपेक्षा असंज्ञीश्रुत है।16 केवली संज्ञी क्यों नहीं?
आगमों में क्षायिक ज्ञान के धारक केवली को नो संज्ञी नो असंज्ञी बताया है। जबकि क्षायोपशमिक ज्ञान वाले को संज्ञी कहा है, इसका क्या कारण है? जिनभद्रगणि इसका समाधान देते हुए कहते हैं कि संज्ञा में अतीत अर्थ का स्मरण और अनागत अर्थ का चिन्तन होता है। लेकिन क्षायिक ज्ञान के धारी केवली में इस प्रकार की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती है। क्योंकि वे प्रत्येक पदार्थ को साक्षात् और सर्वदा जानते हैं। उसमें उन्हें चिन्तन, स्मरण की आवश्यकता नहीं होती है। इस संदर्भ में केवली जीव संज्ञी नहीं अर्थात् संज्ञातीत हैं, अतः क्षायोपशमिक ज्ञानी को ही संज्ञी माना गया है।17 मिथ्यादृष्टि असंज्ञी क्यों?
सम्यग्दृष्टि जीव संज्ञी और मिथ्यादृष्टि जीव असंज्ञी होते हैं। मिथ्यात्व मोहनीय और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से संज्ञीश्रुत की प्राप्ति होती है 18 मिथ्यादृष्टि भी हिताहित के विभाग रूप से ज्ञानात्मक संज्ञायुक्त हो कर जानता है, तो वह दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा से अंसज्ञी कैसे है? वे असंज्ञी इसलिए होते हैं कि उनकी संज्ञा मिथ्यादर्शन के कारण अशुभ होती है। का परिग्रह किया है। उनमें असत्
और सत् का विवेक नहीं होता है। उनका ज्ञान संसार का कारण बनता है और उनको ज्ञान का फल नहीं मिलता, जैसे व्यवहार में कुत्सित शील को अशील कहा जाता है, कुत्सित वचन अवचन कहलाता है, वैसे ही मिथ्यात्व के कारण कुत्सित ज्ञान होने से संज्ञी को असंज्ञी कहा गया है। ज्ञान के फल रूप चारित्र का भी उसके अभाव होता है 19 लेकिन दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा से देवादि चारों गतियों के मिथ्यादृष्टि जीवों को संज्ञी माना है, तो फिर दृष्टिवाद की अपेक्षा से भी वे संज्ञी होना चाहिए। इसका समाधान देते हुए जिनभद्रगणि कहते हैं कि जैसे पृथ्वी आदि जीवों में
ओघसंज्ञा होते हुए भी उन्हें हेतुवादोपदेशिकी की अपेक्षा से असंज्ञी माना है। क्योंकि ओघसंज्ञा आदि हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा अशुभ है। दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा से हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा अशुभ होने से हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा के स्वामियों के दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा से असंज्ञी कहा है। उसी प्रकार दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा से दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा अशुभ है, इसलिए दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा से जिन्हें संज्ञी माना है, वे भी दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा से असंज्ञी है 220 दृष्टिवाद की अपेक्षा संज्ञीश्रुत-असंज्ञीश्रुत
जिन जीवों में यह दृष्टिवाद संज्ञा पायी जाती है, उन जीवों का सम्यक् श्रुत, दृष्टिवाद संज्ञा की अपेक्षा 'संज्ञीश्रुत' है तथा जिन जीवों में यह दृष्टिवाद संज्ञा नहीं पायी जाती, उन जीवों का मिथ्याश्रुत, दृष्टिवाद संज्ञा की अपेक्षा 'असंज्ञीश्रुत' है। मिथ्यात्व मोहनीय और श्रुतज्ञानावरण के
216. विशेषावश्यभाष्य गाथा 517
217. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 518 218. मिच्छत्तस्स सुतावरणस्य य खयोवसमेणं कतेणं सण्णिसुतस्स लंभो भवति। - नंदीचूर्णि, पृ. 74 219. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 519-521
220. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 522