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________________ [242] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन का चिन्तन दीर्घकालिकी संज्ञा है। यही मन है। मनोलब्धि सम्पन्न जीव मनोवर्गणा के अनन्त स्कंधों को ग्रहण कर मनन करता है, वह दीर्धकालिकी संज्ञा है। यह संज्ञा मनोज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से निष्पन्न होती है।196 जीवों के अर्थोपलब्धि का स्तर - दीपकादि के प्रकाश से जाने हुए घटादि के संबंध में चक्षुष्मान् को स्पष्ट अर्थ का ज्ञान होता है। इसी प्रकार मनोज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से युक्त जीव को चिंताप्रवर्तक मनोद्रव्य के प्रकाश में अर्थ का ज्ञान स्पष्ट होता है। यह पांच इन्द्रिय और मन के भेद से त्रिकाल विषय रूप छह प्रकार का उपयोग होता है। जिस प्रकार अविशुद्ध चक्षुवाले जीव को मन्द प्रकाश में अस्पष्ट ज्ञान होता है, उसी प्रकार असंज्ञी के स्वल्प मनोविज्ञान क्षयोपशम के कारण अल्प मनोद्रव्य ग्रहण की शक्ति होने से शब्दादि अर्थ की अस्पष्ट उपलब्धि होती है। जैसे कि मूर्छा प्राप्त हुए व्यक्ति को सभी विषयों का अव्यक्त ज्ञान होता है वैसे ही प्रकृष्ट ज्ञानावरण के उदय से एकेन्द्रिय जीवों को भी अव्यक्त ज्ञान होता है। द्वीन्द्रियादि का उससे अधिक स्पष्ट, असंज्ञी पंचेन्द्रिय का और अधिक एवं संज्ञी पंचेन्द्रिय को एकदम स्पष्ट रूप से ज्ञान होता है। मानसिक प्रकाश के अभाव में अर्थ की उपलब्धि मंद, मंदतर होती चली जाती है।7 शंका - सभी जीवों में चैतन्य समान होते हुए भी विविध प्रकार की उपलब्धि क्यों होती है? समाधान - जिस प्रकार चक्ररत्न, तलवार, दात्र, बाण आदि में छेदक गुण समान रूप से पाया जाता है फिर भी चक्ररत्न की छेदक क्षमता से तलवार की कम, उससे दात्र की, उससे बाण आदि की छेदक क्षमता हीन होती जाती है, उसी प्रकार सभी जीवों में चैतन्य समान रूप से होने पर भी ज्ञानावरणीय कर्म के विचित्र क्षयोपशम के कारण एकेन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों में विविध प्रकार की ज्ञानोपलब्धि होती है। संज्ञीपंचेन्द्रिय की अर्थोपलब्धि (ज्ञान) की पटुता विशुद्धतर, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के अविशुद्ध, विकलेन्द्रिय के अविशुद्धतर और एकेन्द्रिय के अविशुद्धतम होती है।198 जिनदासगणि ने भी लगभग ऐसा ही उल्लेख किया है।99 दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा के कार्य दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा में लम्बे भूतकाल और लम्बे भविष्यकाल विषयक निम्न छह कार्यों का उल्लेख नंदीसूत्र में हुआ है, यथा 1. ईहा करना - सत्पदार्थ के धर्मों का अन्वय और व्यतिरेक से विचार करना, जैसे कि यह क्या है? 2. अपोह करना - निश्चय, अवाय करना अर्थात् व्यतिरेक का त्याग कर अन्वय को समझाना। जैसे - यह रस्सी है। 3. मार्गणा करना - सत्पदार्थ में पाये जाने वाले गुण धर्म का विचार करना, मधुरता के कारण यह शब्द शंख का है। 4. गवेषणा करना - सत्पदार्थ में नहीं पाये जाने वाले गुण धर्म का विचार करना, इस शब्द में कर्कशता नहीं है इसलिए यह शंख का शब्द है। 5. चिंता करना - भूत में यह कैसे हुआ? वर्तमान में क्या करना है? भविष्य में क्या होगा? इसका चिंतन करना। 6. विमर्श करना - यह इसी प्रकार घटित होता है, यह इसी प्रकार हुआ, यह इसी प्रकार होगा, इत्यादि, पदार्थ का सम्यक्-यथार्थ निर्णय करना आदि'दीर्घकालिक संज्ञा' कहलाती है।200 चूर्णिकार ने ईहा के वैकल्पिक अर्थ भी बताये हैं 201 हरिभद्र और मलयगिरि202 का वर्णन चर्णिकार से भिन्न है। 196. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 508-509 197. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 510-512 198. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 513-514 199. नंदीचूर्णि, पृ. 73 200. पारसमुनि, नंदीसूत्र पृ. 210-211 201. नंदीचूर्णि पृ. 73 202. हारिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 75, मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 190
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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