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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा संज्ञी असंज्ञी जीव
जिन जीवों में यह दीर्घकालिक संज्ञा पायी जाती है, वे इस दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा 'संज्ञी जीव' हैं तथा जिनमें ये नहीं पायी जाती, वे 'असंज्ञी जीव' हैं।
__ भाष्यकार के अनुसार दीर्घकालिक संज्ञा जितने भी मन वाले प्राणी हैं, उनमें पाई जाती है, यथा - नारक, गर्भज तिर्यंच, गर्भज मनुष्य और देव/03 जिनदासगणि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। जितने भी मन रहित प्राणी हैं-सम्मूर्छिम एक इन्द्रिय से लेकर पाँच इन्द्रिय वाले तिर्यंच और सम्मूर्छिम मनुष्यों में यह संज्ञा नहीं पायी जाती, क्योंकि जैसे अंधा प्राणी नेत्र और दीपक के अभाव में किसी भी पदार्थ का स्पष्ट ज्ञान करने में असमर्थ होता है, वैसे ही ये भी मन के अभाव में (अल्पता में) दीर्घ विचारपूर्वक पदार्थ का स्पष्ट विचार करने में असमर्थ रहते हैं |205 दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा की अपेक्षा संज्ञी असंज्ञी श्रुत
जिन जीवों में यह दीर्घकालिक संज्ञा पायी जाती है, उन जीवों का श्रुत, दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा 'संज्ञी श्रुत' है तथा जिन जीवों में यह संज्ञा नहीं पायी जाती, उन जीवों का श्रुत, दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा 'असंज्ञी श्रुत' है। 2. हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा
जो प्रायः वर्तमान के हेतु का विचार है अर्थात् निकट भूत एवं निकट भविष्य के हेतु का विचार हैं, उसे 'हेतु संज्ञा' कहते हैं। जिनमें अभिसंधारण-बुद्धिपूर्वक कार्य करने की क्षमता हो, वे हेतु की अपेक्षा संज्ञी तथा जिनमें ऐसी क्षमता नहीं हो, वे असंज्ञी हैं।206
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार - जिसमें प्रायः वर्तमान कालिक ज्ञान हो उसे हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं अर्थात् अपने शरीर की रक्षा के लिए इष्ट वस्तुओं को ग्रहण करने तथा अनिष्ट वस्तुओं का त्याग करने रूप जो उपयोगी वर्तमानकालिक ज्ञान होता है, उसे हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहते हैं |207
आवश्यकचूर्णि में अर्थ किया है कि - अभिसंघारणपूर्वक करणशक्ति का अर्थ है, मन से पूर्वापर का विमर्श कर प्रवृत्ति निवृत्ति करना। जिन जीवों में यह शक्ति होती है, वे जिस शब्द को सुनकर ज्ञान करते हैं, वह हेतुवादोपदेशिक संज्ञीश्रुत है।208 हेतुवादोपदेशिक संज्ञा के सम्बन्ध में नंदी के टीकाकारों का मत
जिस संज्ञा में हेतु और कारण निमित्त हो वह हेतुवादोपदेशिक संज्ञा है। जिनदासगणि और हरिभद्र के अनुसार आलोचन (अभिसन्धारण) व्यक्त विज्ञान से प्राप्त होता है। जबकि मलयगिरि के अनुसार व्यक्त और अव्यक्त दोनों प्रकार के विज्ञान से प्राप्त होता है,209 शक्ति अर्थात् कारण शक्ति। जिसके तीन अर्थ हैं - क्रिया के लिए सामर्थ्य, क्रिया में प्रवृत्ति और कारण शक्ति। जिनदासगणि210 तीनों अर्थ करते हैं। हरिभद्र11 प्रथम अर्थ करते हुए शक्ति का अर्थ सामर्थ्य करते हैं और मलयगिरि-12 203. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 509 204. जस्स सण्णा भवति सो आदिपदलोवातो कालिओवदेसेणं सण्णीत्यर्थ। - नंदीचूर्णि, पृ. 73 205. नंदीचूर्णि, पृ. 74 206. हेऊवएसेणं जस्सणं अत्थि अभिसंधारणपुब्विया करणसत्ती से णं सण्णीति लब्भइ। जस्स णं णत्थि अभिसंधारणपुब्विया
करणसत्ती से णं असण्णीति लब्भइ। सेत्तं हेऊवएसेणं। - नंदीसूत्र, पृ. 149 207. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 515-516
208. आवश्यकचूर्णि भाग 1, पृ. 31 209. अव्यक्तेन व्यक्तेन वा विज्ञानेनालोचनं। - मलयगिरि पृ. 190 210. तत: विज्ञानस्यैव करणशक्तिः करणं-क्रिया शक्तिः सामर्थ्यम्, अथवा करण एवं शक्तिः करणशक्तिः ।-नंदीचूर्णि पृ. 74 211. करणं क्रिया, शक्तिः समार्यम्। - हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति, पृ. 75 212. करणशक्तिः करणं क्रिया तस्यां शक्तिः -प्रवत्तिः । -मलयगिरि, नंदीवत्ति. प. 190