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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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अर्थ निम्न प्रकार से किए हैं - 1. जो भली प्रकार से जानता है, उसको संज्ञ अर्थात् मन कहते हैं। वह मन जिसके पाया जाता है, उसको संज्ञी कहते है। (सम्यग् जानातीति संज्ञं मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी) अथवा 2. जो जीव मन के अवलम्बन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है, उसे संज्ञी कहते हैं और जो इन शिक्षादि को ग्रहण नहीं कर सकता है, उसको असंज्ञी कहते हैं। दूसरी व्याख्या में भी मन का आलम्बन तो स्वीकार किया ही है। इससे दोनों में अन्तर स्पष्ट नहीं होता है।188
तत्वार्थसूत्र में 'संज्ञिनःसमनस्का:' (संज्ञी जीव मन वाले होते हैं) ऐसा कह कर भाष्य में इसका स्पष्टीकरण किया है कि यहाँ संज्ञी शब्द से वे ही जीव विवक्षित हैं, जिनमें संप्रधारण संज्ञा हो। सम्प्रधारण संज्ञा का अर्थ है - ईहा और अपोह से युक्त गुण-दोष का विचार करने वाली संज्ञा । सम्प्रधारण संज्ञा मन वाले जीवों के ही होती है। 189 ___ आवश्यकनियुक्ति में संज्ञी-असंज्ञीश्रुत के नामोल्लेख के अलावा कोई विशेष स्पष्टता मिलती नहीं है। परंतु बाद के काल में जो विचार हुआ वह नंदी और तत्वार्थ सूत्र में मिलता है। तत्वार्थसूत्र में एक प्रकार का वर्गीकरण मिलता है, जबकि नंदी सूत्र में तीन प्रकार का मिलता है - दीर्घकालिकोपदेशिकी आदि। इन्हीं का उल्लेख भाष्यकार ने किया है।
विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार संज्ञी-असंज्ञी का स्वरूप - जिसके संज्ञा होती है, वह संज्ञी कहलाता है। संज्ञा तीन प्रकार की होती है - दीर्घकालिकोपदेशिकी, हेतुवादोपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी।91 संज्ञा की उपस्थिति में जीव संज्ञी है, तो एकेन्द्रियादि जीवों में भी आहारादि दसों संज्ञाएँ होती हैं। उनको संज्ञी मानना चाहिए, लेकिन आगमों में अनेक स्थालों पर इन जीवों को असंज्ञी माना है। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने इसका समाधान देते हुए कहा है कि अल्प धन और रूप से व्यक्ति धनवान और रूपवान नहीं कहलाता है अर्थात् बहुत धन और रूप होने पर ही व्यक्ति धनवान् और रूपवान् कहलाता है। वैसे ही आहारादि दस संज्ञाओं में अल्पता युक्त होता है, तो वह संज्ञी नहीं कहलाता है। परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से हुए मनोज्ञान संज्ञा से ही जीव संज्ञी कहलाता है।93 संज्ञी-असंज्ञी श्रुत का स्वरूप
संज्ञी (और असंज्ञी) श्रुत तीन प्रकार के हैं -1. काल की अपेक्षा, 2. हेतु की अपेक्षा तथा 3. दृष्टि की अपेक्षा ।194 अतएव इन त्रिविध संज्ञाओं की विवक्षा से संज्ञी जीव और असंज्ञी जीव भी तीन-तीन प्रकार के हैं और इस कारण संज्ञीश्रुत और असंज्ञीश्रुत भी तीन-तीन प्रकार का हैं।
दीर्घकालिकोपदेशिकी आदि तीन संज्ञाओं का स्वरूप निम्न प्रकार से है। 1. दीर्घकालिकोपदेशिकी संज्ञा
जिससे जीवों में ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता हो वह दीर्घकालिकी संज्ञा कहलाती है।195 अथवा जिस संज्ञा में भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों का ज्ञान हो अर्थात् मैं यह कार्य कर चुका हूँ, यह कार्य कर रहा हूँ और यह कार्य करूंगा, इस प्रकार
188. षटखण्डागम (धवला) पु. 1. पृ. 152
189. तत्वार्थभाष्य 2.25 190. आवश्यकनियुक्ति गाथा 19, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 454
191. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 504 192. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 505
193. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 506-507 194. सण्णिसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा-कालिओवएसेणं, हेऊवएसेणं, दिट्ठिवाओवएसेणं। - नंदीसूत्र, पृ. 149 195. नंदीसूत्र, पृ. 150