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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
जिनभद्रगणि और मलधारी हेमचन्द्र के अनुसार श्रुत शब्द में श्रवण से श्रोत्रेन्द्रिय मुख्य है। उच्छ्वास-नि:श्वास, थुकना, खांसी, छींक, सुंघना, अनुस्वार आदि से जो ज्ञान है, वह अनक्षर श्रुत है। यह श्रुतज्ञान का कारण है, अतः द्रव्य श्रुत है। विशिष्ट अभिप्राय पूर्वक उच्छ्वास, आदि का प्रयोग होता है, तब वह श्रुतज्ञान का कारण बनता है। अथवा श्रुत में उपर्युक्त व्यक्ति का सारा व्यापार ही श्रुत है, किन्तु सिर घुनना आदि चेष्टाएं श्रुत नहीं है। जैसेकि पुत्र जन्म पर किसी ने थाली बजाई वह अभिप्राय युक्त तथा अनक्षर श्रुत है। निष्प्रयोजन थाली बजाई वह ध्वनि मात्र है, अभिप्राय युक्त नहीं है। अत: वह अनक्षर श्रुत रूप नहीं है। उच्छ्वास आदि ही श्रुत के रूप में रूढ है। जो सुना जाता है, वह श्रुत है। उच्छ्वास आदि श्रवण के विषय हैं। सिर, हाथ आदि की चेष्टा दृश्य है, श्रव्य नहीं है, अतः वह श्रुत नहीं है। अनुस्वार आकार आदि वर्गों की तरह अर्थ का ज्ञापक है, अतः श्रुत है।66 हरिभद्र और मलयगिरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है।67 ___आवश्यकनियुक्ति में श्रुतज्ञान के वर्णन में मात्र अनक्षर श्रुत के उदाहरण प्राप्त होते हैं। जैसेकि उच्छ्वसितं (उच्छ्वास), निःश्वसित (नि:श्वास), निष्ठूतं, (थूकना) कासितं (खांसी), क्षुतं (छींक) नि:संघित (ताली) अनुस्वार (सानुस्वार उच्चारण), सेण्टित (नाक छींकना) आदि । 68 डॉ. हरनारयण पंड्या 69 का अनुमान है कि नियुक्ति के समय में श्रुतज्ञान के भेदों में से अनक्षरश्रुत मुख्यत: चर्चा का विषय रहा होगा, इसलिए नियुक्तिकार ने अनक्षरश्रुत का ही विशेष उल्लेख किया है। लेकिन जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के समय तक सभी भेदों की चर्चा होने लगी होगी, इसीलिए उन्होंने सभी भेदों को विस्तार से समझाया है।
उच्छ्वास-नि:श्वास आदि मात्र ध्वनि रूप ही हैं। लेकिन यह ध्वनि भावश्रुत का कारण रूप होने से द्रव्यश्रुत है। अथवा श्रुतज्ञान के उपयोगवाले व्यक्ति के उच्छ्वासादि सभी व्यापार श्रुत ही हैं। यहाँ शंका होती है कि जब श्रुतोपयोग वाले के सभी व्यापार श्रुत ही हैं तो फिर उसका गमनआगमन, हस्तादि की चेष्टाएं भी द्रव्यश्रुत होनी चाहिए। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने इसका समाधान दो प्रकार से दिया है - 1. उच्छ्वास-नि:श्वास आदि को ही अनक्षर श्रुत कहने की रूढि है, लेकिन हस्तादि के व्यापार को श्रुत नहीं कहते हैं। 2. जो सुना जाता है, वह श्रुत है। हस्तादि की चेष्टाओं नहीं सुना जाता है, इसलिए वे श्रुत नहीं है। हरिभद्र, मलयगिरि और यशोविजय ने भी जिनभद्रगणि का समर्थन किया है।
मलधारी हेमचन्द्र ने बृहद्वृत्ति में हस्तादि चेष्टाओं को श्रुत का हेतु माना है, क्योंकि वह भी उच्छ्वास-नि:श्वास आदि के समान मनोगत अभिप्राय को व्यक्त करते हुए अक्षरात्मक ज्ञान है। क्योंकि अभिनय आदि में जो हस्तादि की चेष्टाएं की जाती है, वे भी द्रव्यश्रुत का रूप ही है।1
जिनभद्रगणि के अनुसार अनुस्वार भी अर्थ का ज्ञान कराने के कारण श्रुत है अर्थात् अकारादि वर्गों के समान ही अर्थ का ज्ञान कराने वाला होने से अनुस्वार श्रुत रूप है। ऐसा ही उल्लेख हरिभद्र, मलधारी हेमचन्द्र और मलयगिरि ने भी किया है।72 मतिज्ञान के ईहादि भेदों में शब्दोल्लेख होते हैं। 166. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 502-503 एवं बृहवृत्ति 167. हारिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 72, मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 189 168. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 20 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 501, नंदीसूत्र, पृ. 147 169. जैनसंमत ज्ञानचर्चा, पृ. 168 170. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 501-503, नंदीसूत्र पृ. 147, मलयगिरि पृ. 189, जैनतर्कभाषा पृ. 23 171. करादिचेष्टास्तुमतिज्ञानस्याऽसाधारणकारणं नं भवन्ति, श्रुतज्ञानहेतुत्वादपि। - विशेषावश्यकभाष, गाथा 174 की बृहद्वृत्ति 172. हारिभद्रीय पृ. 72, अनुस्वारादयस्त्वकारादिवर्णा इवाऽर्थस्याऽधिगमका एवेति। - विशेषावश्यकभाष, गाथा 503 की
बृहद्वृत्ति, पृ. 233-234, मलयगिरि पृ. 189