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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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वह श्रुत से किस प्रकार भिन्न है। इसकी स्पष्टता यशोविजय ने लब्ध्यक्षर के भेदों का उल्लेख करते समय की है।
प्रश्न - श्वास लेना, श्वास छोड़ना इत्यादि शाब्दिक क्रियाएँ द्रव्य-श्रुत के अन्तर्गत कब समझनी चाहिए?
उत्तर - जब इन शाब्दिक क्रियाओं का प्रयोग करने वाले किसी अन्य जन को, किसी पदार्थ विशेष का ज्ञान कराने के अभिप्राय से, इन शाब्दिक क्रियाओं का प्रयोग करता है, तभी इन्हें द्रव्य श्रुतज्ञान के अन्तर्गत समझना चाहिए। जैसे मल त्याग करने के स्थान में मल त्याग करता हुआ पुरुष, अपनी उपस्थिति और उस अवस्था का, अन्य अनभिज्ञ पुरुष को ज्ञान कराने के अभिप्राय से, कंठ के द्वारा अवर्णात्मक विचित्र स्वर करता (खखारता) है, तो वह स्वर, द्रव्य श्रुतज्ञान के अन्तर्गत है, क्योंकि वह शब्द अन्य अनभिज्ञ पुरुष को उक्त पुरुष की स्थिति जानने रूप भाव श्रुतज्ञान में कारण बनता है। ऐसा ही उल्लेख हरिभद्र, मलियगिरि ने भी किया है। अनक्षर श्रुत के भेद
जैसे अक्षर श्रुत के तीन भेद हैं - १. संज्ञा अक्षर श्रुत, २. व्यंजन अक्षर श्रुत, और ३. लब्धि अक्षर श्रुत, वैसे ही अनक्षर श्रुत के तीन भेद होते हैं - १. संज्ञा अनक्षर श्रुत, २. व्यंजन अनक्षर श्रुत और ३. लब्धि अनक्षर श्रुत। जो हाथ की चेष्टा विशेष आदि 'संज्ञा अनक्षर श्रुत' है, क्योंकि वे चेष्टाएँ संज्ञात्मक हैं। शब्दात्मक अनक्षर श्रुत उसे 'व्यंजन अनक्षर श्रुत' के अन्तर्गत समझना चाहिए तथा जो इन दोनों से सुन कर व देखकर उत्पन्न श्रुतज्ञान को 'लब्धि अनक्षर श्रुत' समझना चाहिए, क्योंकि वह ज्ञानात्मक है। इन दोनों भेदों को यहाँ नहीं कहा है, परन्तु उन्हें उपलक्षण से समझ लेना चाहिए।175 3-4. संज्ञी श्रुत-असंज्ञी श्रुत ।
जो जीव संज्ञा सहित हैं, उनके श्रुत को 'संज्ञीश्रुत' कहते हैं तथा जो जीव संज्ञा रहित हैं, उनके श्रुत को 'असंज्ञीश्रुत' कहते हैं। अतः संज्ञी श्रुत के स्वरूप को समझने के लिए पहले संज्ञा और संज्ञी का क्या स्वरूप है, इसको समझना आवश्यक है। जैनदर्शन में संज्ञा शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ है, जैसेकि सामान्य ज्ञान रूप आहारादि दस संज्ञा, प्रत्यभिज्ञान, मनोव्यापार, अभिसंधारण शक्ति, मतिज्ञान और भूत-भविष्यत्कालीन सम्यक् चिंतन इत्यादि। बौद्धदर्शन में संज्ञा के दो अर्थ है - ज्ञान और निमित्तोद्ग्रहण। संज्ञा का स्वरूप
अर्धमागधी भाषा का शब्द 'सण्णा' है जिसकी संस्कृत छाया होती है 'संज्ञा,' संज्ञा शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है- 'संज्ञानं संज्ञा आभोग इत्यर्थः यदिवा सञ्ज्ञायतेऽनयाऽयं जीव इति संज्ञा।' अर्थात् - 'सम्' पूर्वक 'ज्ञा अवबोधने' धातु से संज्ञा शब्द बनता है। जिसका अर्थ है ज्ञान करना तथा यह 'जीव' है ऐसा जिस ज्ञान से जाना जाय, उसे संज्ञा कहते हैं। वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से पैदा होने वाली आहारादि की प्राप्ति के लिए आत्मा की क्रिया विशेष को संज्ञा कहते हैं। अथवा जिन बातों से यह जाना जाय कि जीव आहार आदि को चाहता है, उसे संज्ञा कहते हैं। किसी के मत से मानसिक ज्ञान ही संज्ञा है अथवा जीव का आहारादि विषयक चिन्तन संज्ञा है। 173. ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्, पृ. 9 174. अनक्षरशब्दकारणकार्य-मनक्षरश्रुतम्। - हारिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 72, मलयगिरि, नंदीवृत्ति पृ. 189 175. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 210
___ 176. प्रज्ञापनावृत्ति, पृ. 233 177. वेदनीयमोहोदयाश्रिता ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपमाश्रिता च विचित्राऽऽहारादिप्राप्तिक्रिया। - प्रज्ञापनावृत्ति, पृ. 233