________________
[234] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
शंका - नंदीसूत्र में सामान्य रूप से ही ज्ञानाक्षर का प्रतिपादन किया गया है। लेकिन विशेषावश्यकभाष्य की गाथा 497 और नंदीसूत्र के अनुसार "सभी जीवों में पर्यवाक्षर का अनन्तवाँ भाग नित्य खुला रहता है। 140 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 496 में अक्षर का सम्बन्ध श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों से बतलाया गया है। यह पर्यवाक्षर श्रुताक्षर नहीं हो सकता है, क्योंकि सम्पूर्ण द्वादशांगी जानने वाले के सम्पूर्ण श्रुताक्षर होता है। उसकी अपेक्षा सभी जीवों के अक्षर का अनन्तवां भाग नित्य अनावृत्त रहता है, ऐसा अर्थ प्राप्त नहीं होता है। अतः यह कथन केवलाक्षर की अपेक्षा से होना चाहिए। क्योंकि अनंत पर्याय युक्त होने से अक्षर शब्द से केवलज्ञान ग्रहण किया जाता है। अतः श्रुताक्षर केवलज्ञान की पर्याय के समान कैसे है? क्योंकि श्रुतज्ञान का विषय केवलज्ञान के अनन्तवें भाग जितना होता है। अतः केवलज्ञान की पर्याय के तुल्य श्रुताक्षर की पर्याय का प्रमाण कैसे हो सकता है।
समाधान - जिनभद्रगणि कहते हैं कि यह सही नहीं है। क्योंकि केवलाक्षर में भी उपर्युक्त अर्थ घटित नहीं होता है। अथवा यहाँ सामान्य से सभी जीवों का कथन करने के बाद अपि41 शब्द से केवली के सिवाय के दूसरे सभी जीवों के अक्षर का अनन्तवां भाग खुला रहता है, ऐसा अर्थ करने पर केवलाक्षर मानने में कोई विरोध नहीं है। इस न्याय से तो जिस प्रकार केवलाक्षर का अर्थ घटित किया गया है, उसी प्रकार श्रुताक्षर का भी अर्थ घटित हो जाता है। जैसे सामान्य कथन में अपि शब्द से केवली को छोड़कर शेष जीवों का कथन कर रहे हैं, उसी प्रकार सामान्य से सभी जीवों का कथन करके अपि शब्द से सम्पूर्ण द्वादशांगी जानने के अलावा शेष जीवों के अक्षर का अनन्तवां भाग नित्य अनावृत्त रहता है, ऐसा कह सकते हैं। अतः यहाँ पर अकारादि से श्रुताक्षर ही कहा है, लेकिन केवलाक्षर नहीं। 42 श्रुतज्ञान और केवलज्ञान की पर्याय
श्रुताक्षर की मात्र स्व-पर्याय अथवा पर-पर्याय केवलज्ञानी की पर्याय के बराबर नहीं है। जबकि श्रुताक्षर की स्व और पर पर्याय उभय रूप से मिलाकर ही केवलज्ञान की पर्याय के तुल्य है अर्थात् केवलज्ञान की पर्याय की अपेक्षा से श्रुत की स्व-पर पर्याय सर्वद्रव्य की पर्याय राशि के बराबर है। 143 श्रुतज्ञान या प्रत्येक अक्षर के द्वारा जितना जाना जाता है, वह उसकी स्वपर्याय होती है। केवलज्ञान के द्वारा जानी जाने वाली शेष सभी पर्याय उस श्रुत या अक्षर की पर पर्याय होती है। इस प्रकार श्रुतज्ञान की स्व-पर पर्याय मिलकर केवलज्ञान की स्वपर्याय के तुल्य होती है। श्रुत की स्वपर्याय सर्व पर्यायों के अनन्तवें भाग जितनी होने से श्रुतज्ञान की पर्याय से केवलज्ञान की पर्याय अनन्त गुण अधिक होती है।
स्व-पर पर्याय रूप विशेष रहित सामान्य से अनन्तपर्याय युक्त केवलज्ञान अविशेष है। ऐसा अविशेष केवलज्ञान मात्र स्व-पर्याय से ही सर्वद्रव्य पर्याय की राशि के प्रमाण जितना है। जबकि श्रुतज्ञान तो स्व-पर पर्याय मिलाकर सर्वद्रव्य पर्याय की राशि जितना होता है, यह केवलज्ञान और श्रुतज्ञान में अन्तर है। वास्तव में तो केवलज्ञान की स्व-पर्याय पर-पर्याय युक्त ही है। लेकिन वस्तु स्वभाव से तो केवलज्ञान स्व-पर पर्याय के भेद से भिन्न है, क्योंकि केवलज्ञान जीव का स्वभाव है
और घटादि उससे भिन्न है। 44 140. सव्वजीवा णं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो, णिच्चुग्घाडिओ। - नदीसूत्र, पृ. 157 141. ...केवलिवजाणं तिविहभेओऽवि। - विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 497 142. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 492 143. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 493 144. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 494-495