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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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होने से वे सभी पर्यायें मुनि (यति) की ही मानी जाती हैं । उसी प्रकार ग्रहण करने रूप और त्याग करने रूप फल वाली प्रत्येक पर्याय अक्षर की है और उपलक्षण से घटादि की भी है। 31 एक का ज्ञान सर्व का ज्ञान
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जो स्व और पर समग्र पर्यायों से युक्त किसी एक भी वस्तु को जानता है, वह सम्पूर्ण लोक और अलोक में विद्यमान स्व-पर पर्यायों से युक्त सर्व वस्तु को जानता है क्योंकि एक वस्तु का परिज्ञान सर्व वस्तु के परिज्ञान का अविनाभावी है जो समस्त पर्यायों से युक्त सर्व वस्तु को जानता है, वह सर्व पर्यायों से युक्त एक वस्तु को भी जानता है। क्योंकि सर्व वस्तु का परिज्ञान एक वस्तु के परिज्ञान का अविनाभावी है। आचारांग सूत्र के अनुसार जो एक को जानता है, वह सभी को जानता है और जो सभी को जानता है, वह एक को भी जानता है। 132 यह आगम वचन उपर्युक्त कथन का समर्थन करता है। अतः सर्वपर्याय सहित वस्तु नहीं जानने वाला एक अकार अक्षर को भी पूर्ण रूप से नहीं जानता है, तथा जिसको सभी वस्तुओं का ज्ञान होता है तभी वह एक अक्षर को सर्व प्रकार से जान सकता है। 139 मलयगिरि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। 34 यहाँ श्रुतज्ञान का अधिकार होने से अक्षर की पर्याय का ही उल्लेख किया है, इसी प्रकार अन्य सभी वस्तु का भी अधिकार जान लेना चाहिए। 25
बृहद्वृत्ति के अनुसार आकाश के अलावा शेष सभी पदार्थों में स्व-पर्याय थोड़ी है और परपर्याय उससे अनन्त गुणा है । परन्तु आकाश लोक और अलोक में होने के कारण शेष सभी पदार्थों के समूह से अनन्त गुणा है और शेष सभी पदार्थ उसके अनन्तवें भाग जितने हैं इसलिए आकाश की पर पर्याय अल्प और स्वपर्याय उससे अनन्त गुणा अधिक है।
सारांश यह है कि अकार के उदात्तादि 18 भेद स्वपर्याय रूप हैं, शेष सब पर पर्याय हैं। आकाश को छोड़कर सब द्रव्यों के परपर्याय अनन्तगुणा होते हैं। आकाश के स्वपर्याय से पर पर्याय अनन्तवें भाग प्रमाण होते हैं ।
इस प्रकार जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार श्रुत (अक्षर) का भी सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणत्व है। क्योंकि नंदीसूत्र 37 में अक्षर को शब्दतः आकाश-प्रदेश पर्याय परिणाम कहा है। परंतु धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की पर्याय आकाशप्रदेश की अपेक्षा कम होने से उनका समावेश भी अर्थतः समझ लेना चाहिए। इससे अक्षर की सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणता में कोई बाधा प्राप्त नहीं होती है । सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणत्व का नियम एक वर्ण पर भी लागू होगा क्योंकि वर्ण की स्वपर्याय और परपर्याय मिलकर ही वर्ण सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाण मय होता है । नंदीसूत्र में अक्षर की पर्याय के वर्णन में धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य की पर्याय अल्प होने का उल्लेख नहीं किया गया है। वीतराग देव ने एकएक आकाश प्रदेश में अगुरुलघु पर्याय अनन्त कही है, इस अपेक्षा से आकाश की पर्याय अनन्त है। 2
नंदीचूर्णिकार के अनुसार ज्ञानाक्षर, वर्णाक्षर और ज्ञेयाक्षर तीनों अनन्त हैं। 39 प्रस्तुत संदर्भ में ज्ञानात्मक अक्षर ही विवक्षित है । उसका अनन्तवां भाग सदा अनावृत्त रहता है। यही जीव और अजीव की भेद रेखा का निर्माण करता है।
131. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 479-483
133. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 484 485, मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति पृ. 225
134. मलगिरि, नंदीवृपृ.200
132. आचारांग श्रु. 1, अ. 3, उ. 4
135. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 486-486
136. मलधारी हेमचन्द्र, बृहद्वृत्ति, पृ. 227
137. सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अनंतगुणियं वक्रं फिरज नंदीसूत्र. पू. 157
138. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 489- 491
139. नंदीचूर्णि पृ. 83-84