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चर्तुथ अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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अक्षर का पर्यवपरिमाण
जिनभद्रगणि कहते हैं कि सभी जीवों के जघन्य अक्षर का अनन्तवां भाग खुला रहना उसके चैतन्य का कारण है, यदि यह भाग भी आवरित हो जाए तो जीव अजीववत् हो जाएगा। जिस प्रकार सूर्य के आगे मेघों का प्रगाढ़ आवरण आने पर भी दिवस और रात्रि का भेद स्पष्ट होता है। उसी प्रकार अक्षर का अनन्तवां भाग जीव के अनावृत्त रहता है। 145
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सर्व आकाश के जितने प्रदेश हैं, उन्हें सर्व आकाश के प्रदेशों से अर्थात् उन्हें उतने ही प्रदेशों से अनन्तबार गुणा करने पर जितना परिमाण प्राप्त होता है, उतने ही परिमाण में 'पर्यवाक्षर' (अक्षर के पर्यव) होते हैं " अर्थात् ज्ञान का परिमाण लोकाकाश और अलोकाकाश, यों सर्व आकाश के जितने प्रदेश हैं, उन्हें सर्व आकाश के समस्त प्रदेशों के द्वारा अनन्तवार गुणित किया जाये तथा उपलक्षण से धर्मास्तिकाय आदि शेष द्रव्यों के प्रदेशों को भी उनके उतने ही प्रदेशों से अनन्तवार गुणित किया जाये तब जितना गुणनफल होगा उतने अक्षर के अर्थात् केवलज्ञान के पर्यव हैं, या श्रुतज्ञान के स्वपर पर्यव हैं। नंदीसूत्र के उपर्युक्त पाठ से अक्षर अथवा केवलज्ञान का प्रमाण ज्ञेय के आधार पर समझाया गया है। अक्षर अथवा केवलज्ञान का परिमाण इतना ही होता है। 147 कौनसे ज्ञान का अनन्तवां भाग अनावृत्त रहता है ?
उपर्युक्त वर्णन के अनुसार सभी जीवों को पर्यवाक्षर का अनन्तवाँ भाग नित्य खुला रहता है।148 श्रुत की अनादिता सभी जीवों को जिन्हें ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय का उत्कृष्ट उदय है, जिसके कारण जो पूर्वोक्त तीनों प्रकार की संज्ञा से रहित हैं और स्त्यानगृद्धि निद्रा में हैं ऐसे निगोद जीवों को भी अक्षर का (केवलज्ञान का) या श्रुतज्ञान का अनन्तवाँ भाग नित्य (अनादिकाल से ) खुला (उघड़ा) रहता है ।
जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार जघन्य अक्षर का अनन्तवां भाग पृथ्वीकाय आदि एकेन्द्रिय जीवों में होता है। उत्कृष्ट अक्षर का अनन्तवां भाग उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी के होता है। जघन्य और उत्कृष्ट के स्वामियों को छोड़कर शेष द्वीन्द्रियादि जीवों के षट्स्थानपतित मध्यम रूप से अक्षर का अनन्तवां भाग होता है, जो कि द्वीन्द्रियादि जीवों में क्रमशः विशुद्ध होता है। 149 जबकि जिनदासगणि, हरिभद्र और मलयगिरि ने जघन्य और मध्यम इन दो प्रकारों का ही उल्लेख किया है।151 अतः यहाँ अक्षर का तात्पर्य श्रुताक्षर है।
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केवलज्ञान का कोई विभाग नहीं होता है, इसलिए ज्ञान के विकास का अनन्तर्वा भाग उससे सम्बद्ध नहीं है। अवधिज्ञान की प्रकृति अंसख्यात है। इसलिए ज्ञान का अनन्तवां भाग अविधज्ञान से सम्बद्ध नहीं हो सकता है । मनः पर्यवज्ञान की प्रकृति अवधिज्ञान से भी कम है । अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान नित्य अनावृत्त नहीं रहते हैं। शेष दो ज्ञान मति और श्रुत ये दोनों ज्ञान सहचारी हैं। इसलिए श्रुतज्ञानात्मक अक्षर का अनन्तवां भाग अनावृत्त रहता है। अतः जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार अक्षर का अर्थ श्रुताक्षर है
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145. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 497-498
146. सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अनंतगुणियं पज्जवक्खरं णिप्फज्जइ । - नंदीसूत्र, पृ. 157
147. नंदीचूर्णि पृ. 82-83
148. सव्वजीवापि अ णं अक्खरस्स अनंतभागो, णिच्चुग्घाडिओ। नंदीसूत्र पृ. 157
149 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 499-500
151. 'श्रुतस्य जन्तूनां जघन्यो मध्यमो वा द्रष्टव्यो, न तूत्कृष्ट इति स्थितम् ।'
150. नंदीचूर्णि, पृ. 84, हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति पृ. 87 मलयगिरि नंदीवृत्ति पृ. 201