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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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ज्ञानावरण के किंचित् क्षयोपशम के कारण एकेन्द्रिय जीवों को अल्पतम अव्यक्त अक्षर लाभ होता है। जिस प्रकार मंदबुद्धि वाले व्यक्ति, बालक, गोपाल, गाय आदि को अक्षरों का ज्ञान नहीं होता है, तो भी उनके लब्ध्यक्षर हैं, जैसे गाय आदि के शबला, बहुला आदि नाम रखे जाते हैं और जब वे इन नामों को सुनते हैं, तो उनकी प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है। इस प्रकार गायादि का ज्ञान परोपदेश नहीं, वह स्वयं का ही लब्ध्यक्षर है। इसी प्रकार असंज्ञी में भी लब्ध्यक्षर पाया जाता है। यशोविजयजी ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। प्रसंगानुसार एकेन्द्रिय में श्रुतज्ञान कैसे होता है, इसका उल्लेख जिनभद्रगणि के अनुसार निम्न प्रकार से है। एकेन्द्रिय में श्रुत
मतिज्ञान के वर्णन में विशेषावश्यक भाष्य की गाथा में श्रुतज्ञान का लक्षण करते हुए कहा है कि "इंदिय मणोनिमित्तं जं, विण्णाणं सुयाणुसारेणं। निययत्थुत्तिसमत्थं, तं भावसुयं मई इयरा॥112 अर्थात् श्रुत का अनुसरण कर इन्द्रिय और मन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान जिसमें अपने निहित अर्थ को कहने का सामर्थ्य होता है, वह भावश्रुत है अर्थात् शब्दोल्लेख सहित ज्ञान ही श्रुतज्ञान है, इसके अलावा इन्द्रिय और मन से होने वाला शेष ज्ञान मति रूप ही होता है। इस लक्षण से एकेन्द्रिय में श्रुत ज्ञान नहीं हो सकता है, ऐसी शंका की गई है, जिसका युक्तियुक्त समाधान जिनभद्रगणि निम्न प्रकार से दिया है कि एकेन्द्रिय में भले ही द्रव्यश्रुत (शब्द) न हो, किन्तु भावश्रुत तो उसी प्रकार होता है, जिस प्रकार सोये हुए यति (मुनि) में होता है, केवली भगवान् ने सोये हुए मुनि के शब्द का अभाव होने पर भी श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने से भावश्रुत का सद्भाव माना है, वैसे ही एकेन्द्रिय में भी मानना चाहिए। सोया हुआ साधु न तो किसी भी प्रकार का शब्द सुनता है और उसे तद्विषयक किसी भी प्रकार का विकल्प भी नहीं होता है, फिर भी उसमें श्रुत का अभाव नहीं मान सकते हैं, क्योंकि निद्रा से जागृत होने के बाद उसकी भावश्रुत में प्रवृत्ति होती है, इस आधार से व्यवहार में ऐसा माना जाता है कि निद्रावस्था में उसके भावश्रुत था, इसी प्रकार एकेन्द्रियों में द्रव्यश्रुत का अभाव होते हुए आवरण का क्षयोपशम होने से उनमें भावश्रुत का सद्भाव होता है, यथा लता, वृक्षादि में आहार-भयादि संज्ञाओं के चिह्न प्रत्यक्ष देखे जाते हैं।13।
शंका - भाषालब्धि (बोलने की शक्ति) और श्रोत्रलब्धि (सुनने की शक्ति) वाले के ही भावश्रुत हो सकता है, अन्य के नहीं। इस अपेक्षा से सोए हुए साधु में तो भाषालब्धि और श्रोत्रलब्धि होती है क्योंकि नींद से जाग्रत होने के बाद उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है, लेकिन यह एकेन्द्रिय में घटित नहीं हो सकता है, इसलिए उनमें भावश्रुत नहीं हो सकता है। 14
समाधान - केवली भगवान् को छोड़कर शेष सभी संसारी जीवों में द्रव्येन्द्रियों का अभाव होते हुए भी तारतम्य भाव से (कम-ज्यादा) भावेन्द्रियाँ पाई जाती हैं, उसी प्रकार द्रव्यश्रुत का अभाव होते हुए भी पृथ्वीकाय आदि जीवों में भावश्रुत होता है। जैसे एकेन्द्रिय जीवों में पांच द्रव्येन्द्रियों में से मात्र एक द्रव्येन्द्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय) पाई जाती है, शेष चार द्रव्येन्द्रियों के प्रतिबन्धक कर्मों का आवरण होने से अभाव होता है, लेकिन सूक्ष्म अव्यक्त लब्धि उपयोग रूप श्रोत्र आदि भावेन्द्रिय रूप कर्मों का क्षयोपशम होने से सूक्ष्म और अव्यक्त रूप से ज्ञान का सद्भाव होता है। उसी प्रकार पृथ्वी
110. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 474-476 टीका सहित 111. जैनतर्कभाषा पृ. 23
112. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 100 113. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 101
114. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 102