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[228] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन श्रुतज्ञान है और वह इन्द्रिय और मन के निमित्त से व्यवहार प्रत्यक्ष है, आत्मप्रत्यक्ष नहीं है। वह दूसरे के सादृश्य होने से अनुमान है।106
इस प्रसंग पर जिनभद्रगणि ने अनुमान के पांच प्रकारों का उल्लेख किया है - सादृश्य, विसदृश्य, उभयात्मक, उपमा और आगम।
___ 1. सादृश्य अनुमान - प्रत्यक्ष पदार्थ में भी सादृश्य की अपेक्षा स्मृतिज्ञान उत्पन्न होता है। एक स्थान पर व्यक्ति को देखा, पुनः दूसरे स्थान पर उसका हमशक्ल देखने पर पहले वाले व्यक्ति की स्मृति होना सादृश्य अनुमान है।
2. विसदृश्य अनुमान - विपक्ष से भी स्मृति ज्ञान होता है। जैसे नकुल (नोलिया) को देखकर उसके विपक्ष भूत सर्प की स्मृति होना विसदृश्य अनुमान है।
3. उभय अनुमान - एक पदार्थ आदि को देखकर उससे दो अथवा अधिक पदार्थों की स्मृति होना उभय अनुमान है। जैसे खच्चर को देखकर गधे और घोड़े की स्मृति होना उभय अनुमान है।
4. उपमा अनुमान - उपमेय को देखकर उपमान की स्मृति होना उपमा अनुमान है। जैसे गवय (नीलगाय) को देखकर गाय की स्मृति होना उपमा अनुमान है।
5. आगम अनुमान - आगम वाक्यों से स्वर्गादि का ज्ञान होना आगम अनुमान है।
अनुमान के उपर्युक्त पांच भेद अनुमान से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि अन्य सम्बन्ध से विवक्षित अर्थ का ज्ञान होता है। लेकिन किंचित् भेद से अनुमान के पांच ही नहीं और अधिक भेद हो जाते हैं। 107 इन्द्रिय ज्ञान अनुमान है
प्रत्यक्ष रहे हुए घटादि को साक्षात् देखकर जो ज्ञान होता है, धुएँ से जिस प्रकार अग्नि का ज्ञान होता है, उसी प्रकार इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान भी अनुमान ज्ञान ही है। क्योंकि इन्द्रिय और मन से होने वाला वह ज्ञान आत्मा की अपेक्षा से परोक्ष ही है। अत: यह ज्ञान अनुमान से भिन्न नहीं है। लेकिन इन्द्रिय और मन के निमित्त से साक्षात् अर्थ को देख कर जो ज्ञान होता है, उस ज्ञान को तो लोक में प्रत्यक्ष कहा जाता है, फिर आपने उसे अनुमान कैसे कहा है? समाधान - इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होने से उसमें धूमादि अन्य लिंग की अपेक्षा नहीं होती है। इसलिए उस ज्ञान को उपचार से प्रत्यक्ष कहा जाता है। परमार्थ से तो वह अनुमान ही है।108 अक्षरश्रुत के अधिकारी
जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने संज्ञी जीव के अलावा एकेन्द्रिय जीवों को भी लब्ध्यक्षर का स्वामी स्वीकार किया है। जिस प्रकार असंज्ञी के आहारादि संज्ञा, चैतन्य (जीवपना) स्वाभाविक ही प्रतीत होता है, उसी प्रकार एकेन्द्रिय में भी लब्ध्यक्षरात्मक बोधज्ञान है, परन्तु वह ज्ञान अल्प होने से प्रकट नहीं होता है। जिनभद्रगणि के अनुसार जैसे पृथ्वी आदि एकेन्द्रिय जीवों में पौद्गलिक इन्द्रियों का अभाव होने पर भी भावेन्द्रियाँ होती हैं, उसी प्रकार उनमें शब्दात्मक ज्ञान नहीं होने पर भी भावश्रुत होता है। लेकिन भाव श्रुत शब्द और अर्थ की पर्यालोचना से उत्पन्न होता है। शब्द और अर्थ की पर्यालोचना बिना अक्षर के संभव नहीं होती है। अक्षरलाभ परोपदेशजन्य है, अत: यह एकेन्द्रियों में कैसे होगा? समाधान - परोपदेश संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर में आवश्यक है, लब्ध्यक्षर में नहीं, क्योंकि लब्ध्यक्षर क्षयोपशम और इन्द्रिय निमित्त से होता है, अतः असंज्ञी में भी पाया जाता है। अतः 106. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 469
107. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 470 108. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 471
109. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 103