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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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धवला में अक्षरश्रत के प्रकार
षट्खण्डागम में 'अक्खरावरणीयं, अक्खरसमासावरणीयं' का वर्णन है। अक्षरों के तीन प्रकारों का वर्णन धवलाटीका में प्राप्त होता है, जो निम्न प्रकार से हैं - लब्धि अक्षर, निर्वृत्त्यक्षर और संस्थान अक्षर 1100 ___1. लब्धि अक्षर - सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्त से श्रुतकेवली तक के जीवों के ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होने वाला ज्ञान लब्धि अक्षर है। जघन्य लब्ध्यक्षर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त और उत्कृष्ट लब्ध्यक्षर चौदह पूर्वी (श्रुतकेवली) के होता है। जिनभद्रगणि ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है। 102
2. निर्वृत्त्यक्षर - जीवों के मुख से निकले हुए शब्द को निर्वृत्त्यक्षर कहते हैं। निर्वृत्ति अक्षर दो प्रकार के हैं -1. व्यक्त निर्वृत्त्यक्षर और 2. अव्यक्त निर्वृत्त्यक्षर। व्यक्त निर्वृत्त्यक्षर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के और अव्यक्त निर्वृत्त्यक्षर द्वीन्द्रिय से संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के होता है। यह व्यंजनाक्षर के समान है।
3. संस्थान अक्षर - 'यह वह अक्षर है' इस प्रकार अभेद रूप से बुद्धि में जो स्थापना होती है, या जो लिखा जाता है, उसे संस्थान अक्षर कहते हैं। संस्थानाक्षर को स्थापना अक्षर भी कहते हैं। इसके दो भेद हैं 1. 'यह वह अक्षर है' इस प्रकार अभेद रूप से बुद्धि में स्थापना होती है। इस भेद को भाव अक्षर रूप मान सकते हैं। 2. आकृतिविशेष, अर्थात् जो लिखने में आते हैं। आकृति विशेष संस्थान अक्षर जो कि विशेषावश्यकभाष्य में वर्णित संज्ञाक्षर के समान है। यहाँ श्रुतज्ञान के प्रसंग में धवलाटीकार के अनुसार केवल लब्ध्यक्षर ही ज्ञानाक्षर है।103 इसकी न्यूनतम मात्र सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्तक में मिलती है। इसका उत्कर्ष चतुर्दश पूर्वधर में मिलता है। घवला टीका में उपर्युक्त निर्वृत्त्यक्षर और संस्थान अक्षर के प्रभेदों का भी उल्लेख मिलता है। लेकिन श्वेताम्बर परम्परा में इनके प्रभेदों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। द्रव्यश्रुत-भावश्रुत
संज्ञा अक्षर और व्यंजन अक्षर अर्थात् लिखी हुई लिपियाँ और उच्चरित भाषाएँ-'द्रव्य श्रुत' हैं, क्योंकि ये ज्ञान रूप नहीं हैं, परन्तु ज्ञान के लिए कारणभूत हैं तथा लब्धि अक्षर-'भावश्रुत' है, क्योंकि वह स्वयं ज्ञान रूप है, क्षयोपशमरूप है।104 संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर ये दोनों लब्ध्यक्षर से उत्पन्न होते हैं।
द्रव्यश्रुत और भावश्रुत के स्वरूप का वर्णन मतिज्ञान के प्रसंग पर विस्तार पूर्वक कर दिया गया है।105 प्रमाता को लब्ध्यक्षर की प्राप्ति
किसी को इन्द्रिय और मन के निमित्त से व्यवहार प्रत्यक्ष होता है। किसी को धूमादि लिंग से होता है। जैसे धूमादि लिंग देखकर जो अग्नि आदि का ज्ञान होता है, उसको लिंग अनुमान समझना। प्रश्न - लिंग ग्रहण और पूर्व सम्बन्ध के स्मरण के बाद लिंग का ज्ञान अनुमान कहलाता है और आपने लिंग को ही अनुमान कह दिया है, क्यों? उत्तर - यह शंका उचित है, लेकिन यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके कथन किया है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान के जनक घट को भी प्रत्यक्ष कहते हैं, वैसे ही लिंग अनुमान ज्ञान का कारण होने से लिंग को ही अनुमान मान लिया है। लब्ध्यक्षर ही
100, षट्खण्डागम, पुस्तक 13, सू. 5.5.42 पृ. 261-262 102. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 500 104. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 467-468
101. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.48, पृ. 265 103. षट्खं डागम, पु. 13, सू. 5.5.48, पृ. 263-264 105. द्रष्टव्य - तृतीय अध्याय (मतिज्ञान), पृ. 134