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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
आदि एकेन्द्रिय जीवों में द्रव्येन्द्रिय तुल्य द्रव्यश्रुत के अभाव होने पर भी भावेन्द्रिय तुल्य भावश्रुत होता है, ऐसा मानना ही पड़ेगा। क्योंकि वनस्पति आदि एकेन्द्रिय में तो इसके स्पष्ट चिह्न प्राप्त होते हैं, यथा श्रोत्रेन्द्रिय - सुन्दर कण्ठ एवं मधुर पंचम स्वर से उद्गीत गीत-श्रवण से विरहक वृक्ष पर पुष्प उगजाते हैं। इससे उसमें श्रोत्रेन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट बोध होता है। चक्षुरिन्द्रिय - सुन्दर स्त्री की आंखों के कटाक्ष से तिलक वृक्ष पर फूल खिल जाते हैं। इससे चक्षुरिन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट अवरोध होता है। घ्राणेन्द्रिय - विविध सुगन्धित पदार्थों से मिश्रित निर्मल शीतल जल के सिंचन से चम्पक वृक्ष पर फूल प्रकट हो जाते हैं। इससे उसमें घ्राणेन्द्रिय-ज्ञान की स्पष्ट पुष्टि होती है। रसनेन्द्रिय - अतिशय रूप वाली तरुण स्त्री के मुख से प्रदत्त स्वच्छ सुस्वादु शराब के कुल्ले का आस्वादन करने से बकुल वृक्ष पर फूल निकल आते हैं। इससे उसमें रसनेन्द्रिय ज्ञान का स्पष्ट भान होता है।
इसी प्रकार मलधारी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति में एकेन्द्रिय जीवों में पांचों भावेन्द्रिय को घटित किया है। अतः एकेन्द्रिय जीवों में द्रव्येन्द्रियों का अभाव होते हुए भी भावेन्द्रिय जनित ज्ञान होता है। इसी प्रकार द्रव्यश्रुत के अभाव में भावश्रुत भी होता है जैसेकि वनस्पति के जीवों में आहारसंज्ञा है, खादपानी बराबर मिलने पर वह पल्लवित होती है और नहीं मिलने पर वह नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार छुईमुई आदि को छूने से उसमें संकोच होता है, यह भयसंज्ञा, इसी प्रकार चम्पक, केशर, अशोक आदि वृक्षों में मैथुनसंज्ञा, बिल्व, पलाश आदि में परिग्रह संज्ञा भी होती है, क्योंकि उनकी जड़े गड़े हुए धन पर फैलती हैं। ये सभी संज्ञाएं भावश्रुत के बिना नहीं हो सकती हैं। अत: उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि एकेन्द्रिय में द्रव्यश्रुत के अभाव में भी भावश्रुत पाया जाता है। 15
शंका - भाषालब्धि और श्रोत्रलब्धि के अभाव में भी पृथ्वी आदि एकेन्द्रियों में स्पष्ट अनुपलब्ध ज्ञान का आपने सद्भाव सिद्ध किया है, तो इससे उनमें पांचों ज्ञानों के सद्भाव का प्रसंग उपस्थित होगा।
समाधान - आपका कथन सही नहीं क्योंकि एकेन्द्रिय में अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान के आवरण का क्षयोपशम या क्षय नहीं होने से उनका सद्भाव नहीं होता है।16 सभी जीव एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय
जिनभद्रगणि के अनुसार एक समय में एक इन्द्रिय का ही उपयोग होता है, इसलिए उपयोग की दृष्टि से सभी जीव एकेन्द्रिय हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि का भेद निर्वृत्ति, उपकरण और लब्धि इन्द्रिय की अपेक्षा से है तथा लब्धि इन्द्रिय की अपेक्षा सभी जीव पंचेन्द्रिय हैं। 17 एकेन्द्रिय में पांचों भावेन्द्रियाँ पाई जाती हैं, 'पंचेदिउ व्व वउलो, नरो व्व सव्व-विसओवलंभाओ' अर्थात् सब विषयों का ज्ञान होने की योग्यता के कारण बकुश वृक्ष मनुष्य की तरह पांच इन्द्रियों वाला है।18 इसी प्रकार नंदी के टीकाकार मलयगिरि ने एकेन्द्रिय जीवों को भावेन्द्रियों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय बताया है अर्थात् टीकाकारों और भाष्यकारों ने एकेन्द्रियों में एक द्रव्येन्द्रिय तथा पाँच भावेन्द्रियाँ मानी हैं। आगमिक मत
यह कथन आगमानुकूल नहीं है। क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के पद 15 उद्देशक 2 के मूलपाठ "एवं जस्स जति इंदिया तस्स तत्तिया भाणियव्वा जाव वेमाणियाणं।" में एकेन्द्रिय में एक ही 115. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 103 एवं बृहवृत्ति
116. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 104 117. जो सविसयवावारो सो उवओगो से चेगकालम्मि। एगेण चेय तम्हा उवओगेगिंदिओ सव्वो।।
एगिदियाइभेया पडुच्च सेसंदियाई जीवाणं। अहवा पडुच्च लद्धिंदियं पि पंचिंदिया सव्वे।।- विशे०भाष्य, गाथा 2998-2999 118. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3000-3001