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[220] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन श्रुतज्ञान नहीं हो सकेगा तथा इससे सिद्धान्त से विरोध उत्पन्न होगा। अत: सांव्यवहारिक रूप से शब्द ज्ञान श्रुत है। इस अपेक्षा से नियम किया जायेगा, तब तो इष्ट सिद्धान्त से कोई बाधा नहीं आती है। क्योकि चक्षु आदि से उत्पन्न हुए मतिज्ञान को पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न हुए भी श्रुतों को परमार्थ रूप से अकलंक ने स्वीकार किया है। अतः सम्पूर्ण मतिज्ञान को पूर्ववर्ती कारण मानने से श्रुत का अक्षरज्ञान घटित होता है। श्रुत ज्ञान के भेद
श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में मतिज्ञान को कारण माना है। परन्तु मतिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम अनेक प्रकार का है, इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम भी अनेक प्रकार का है। अतः सभी प्राणियों के अपने-अपने क्षयोपशम के भेद से, बाह्य निमित्त के भेद से, श्रुतज्ञान का प्रकर्षापकर्ष होता है, अत: कारण भेद से कार्य के भेद का नियम स्वतः सिद्ध है, अत: मतिपूर्वक होने पर भी सभी के श्रुतज्ञानों में विशेषता बनी रहती है।"
श्रुत ज्ञान के भेदों पर सभी आचार्यों ने विचार किया है। आचार्यों द्वारा विभिन्न दृष्टिकोणों से चिन्तन किया गया जिसके फलस्वरूप भेदों की संख्या के सम्बन्ध में मतभेद प्राप्त होते हैं। इन मतान्तरों को चार विभागों में विभक्त कर सकते हैं, यथा - अनुयोगद्वारसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र। 1. अनुयोगद्वार के अनुसार
अनुयोगद्वार में श्रुत के चार भेद प्राप्त होते हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । नाम आदि चार निक्षेप हैं, प्राचीनकाल में नामादि चार निक्षेपों से वस्तु का स्वरूप समझाया जाता था। जैसे कि आवश्यकनियुक्ति में अवधि को नाम स्थापना आदि से समझाया है। अतः अनुयोगद्वार में श्रुत के उपर्युक्त चार भेद प्राप्त होते हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में द्रव्यश्रुत और भावश्रुत के मुख्य दो भेद किए हैं - आगमतः और नोआगमतः । ये भेद आदि नियुक्ति, षट्खण्डागम और तत्वार्थसूत्र में प्राप्त नहीं होते हैं। अनुयोगद्वार में नोआगम भावश्रुत के दो भेद हैं - 1. लौकिक श्रुत (महाभारत आदि) और 2. लोकोत्तर श्रुत (आचारांग आदि)। नंदीसूत्र में इन दोनों भेदों को अनुक्रम से मिथ्याश्रुत और अंगप्रविष्ट के रूप में उल्लेखित किया गया है। अनुयोगद्वार में श्रुतशब्द के अग्रांकित पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं - श्रुत, सूत्र, ग्रंथ, सिद्धान्त, शासन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापना और आगम ये सभी श्रुत के एकार्थक (पर्यायवाची) शब्द हैं। 2. आवश्यकनियुक्ति के अनुसार
आवश्यक नियुक्ति में अक्षर की दृष्टि और अक्षर, संज्ञी आदि की अपेक्षा से दो प्रकार से विचार किया गया है -
1. अक्षरों के संयोग असंख्यात होने से तथा अभिधेय अनंत होने से श्रुतज्ञान के अनन्त प्रकार हैं अर्थात् लोक में जितने अक्षर हैं और उनके जितने विविध संयोग हैं, उतने ही श्रुतज्ञान के भेद हैं अर्थात् इतनी ही श्रुतज्ञान की प्रकृतियाँ हैं। सब प्रकृतियों को कथन करने की मेरी शक्ति नहीं है। 46. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 3.1.20 47. मतिपूर्वकत्वाविशेषाच्छ्रुताविशेष इति चेन्न, कारणभेदात्तद्भेदसिद्धेः।-राजवार्तिक 1.20.9, षट्खण्डागम पु. 9, 4.1.45 पृ. 161 48. अनुयोगद्वार सूत्र, पृ. 29-38 49. आवश्यकनियुक्ति 28, विशेषावश्यकभाष्य 578
50. अनुयोगद्वार सूत्र, पृ. 36-38, नंदीसूत्र पृ. 155 51. अनुयोगद्वार सूत्र, पृ. 38-39
52. आवश्यकनियुक्ति गाथा 17-18