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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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2. आत्म सिद्धि के लिए मति के साथ श्रुतज्ञान निश्चित कारण है, क्योंकि इन दो ज्ञानों के बिना जीव को केवलज्ञान नहीं हो सकता है। जबकि केवलज्ञान के पूर्व अवधिज्ञान और मन:पर्यवज्ञान होना आवश्यक नहीं हैं, किसी जीव को हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं अर्थात् अन्त में अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान के बिना जीव केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष जा सकता है, किन्तु मति, श्रुतज्ञान के बिना केवलज्ञान नहीं होता है और केवलज्ञान के अभाव में मोक्ष का भी अभाव होता है।
3. श्रुतज्ञान समस्त क्रियाओं का आधार है, चाहे वे क्रियाएं चरण सन्बन्धी हों अथवा करण सबन्धी हो।
4. श्रुत की आराधना से जीव के अज्ञान का क्षय होता है और राग-द्वेष आदि से उत्पन्न होने वाले मानसिक संक्लेशों से जीवों बचता है।
5. सामायिक आवश्यक से चौदहवें पूर्व बिन्दुसार पर्यन्त शास्त्र श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान का सार चारित्र है। चारित्र का सार निर्वाण है।
श्रुतज्ञान मात्र शब्द रूप नहीं
प्रश्न - श्रुतज्ञान, श्रोत्रेन्द्रिय के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से भी संभव है, तब श्रुतज्ञान में सुनने की और श्रोत्र इन्द्रिय की मुख्यता क्यों हैं? उत्तर - यद्यपि श्रुतज्ञान अन्य सभी इन्द्रियों से संभव है, पर सुनना और श्रोत्रेन्द्रिय, ये दोनों श्रुतज्ञान की उत्पत्ति में प्रमुख कारण हैं । अतएव इसको मुख्यता दी गई है। इस सम्बन्ध में जिनभद्रगणि ने शंका उठाते हुए कहा है कि श्रुतज्ञान आत्म परिणाम रूप नहीं है, क्योंकि श्रुत के लक्षण के अनुसार जिसे आत्मा सुनता है, वह श्रुत है, जीव शब्द को ही सुनता है, अतः शब्द ही श्रुत रूप हुआ, जो कि सही नहीं है, क्योंकि शब्द तो पौद्गलिक होने से मूर्त है और आत्मा तो अमूर्त है, मूर्त वस्तु अमूर्त का परिणाम नहीं होती है। लेकिन तीर्थंकरों ने श्रुतज्ञान को आत्म-परिणाम रूप माना है। समाधान - श्रुत और शब्द परस्पर एक दूसरे के कारण होते हैं, इसलिए उपचार से शब्द को श्रुतरूप कहा है, जैसेकि वक्ता द्वारा बोला गया शब्द श्रोता के श्रुतज्ञान का कारण होता है, वक्ता का श्रुत उपयोग युक्त श्रुत बोलते समय शब्द का कारण होता है, इस प्रकार श्रुतज्ञान के कारणभूत या कार्यभूत उस शब्द को उपचार से श्रुत कहा गया है। वास्तव में (परमार्थ से) जीव ही श्रुत है, क्योंकि ज्ञान और ज्ञानी में अभिन्नता है।
अकलंक इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि कुछेक आचार्य श्रवणजन्य ज्ञान को श्रुत मानते हैं। लेकिन यह उचित नहीं है क्योंकि श्रवण जन्य ज्ञान मति है और उसके बाद में हुआ ज्ञान श्रुत है। जैसे कि गो शब्द की बहुत सी पर्यायें होती हैं। शब्द को सुन कर 'यह गो शब्द है' यह मतिज्ञान का विषय है, उसके बाद पीली गो को कहने वाला शब्द, काली गो को कहने वाला शब्द इत्यादि जो इन्द्रिय और मन के द्वारा गृहीत अथवा अगृहीत की हुई गोशब्द की अनेक पर्याय हैं, उन्हें श्रोत्र इन्द्रिय की सहायता के बिना श्रुतज्ञान जानता है एवं गो शब्द के वाच्य का अर्थ गाय है, उसे भी श्रुतज्ञान जानता है, इसलिए जब श्रोत्र इन्द्रिय की अपेक्षा किये बिना भी श्रुतज्ञान नयादि ज्ञानों के द्वारा अपने विषय को जानता है, तब श्रवणजन्य ज्ञान ही श्रुत होता है, यह कथन सही नहीं है।
विद्यानंद के अनुसार शब्द की अनुयोजना से ही श्रुत होता है, इस प्रकार नियम किया जायेगा तब तो श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञान स्वरूप निमित्त से ही श्रुतज्ञान हो सकेगा। चक्षु आदि इन्द्रियों से
42. उत्तराध्ययनसूत्र अ. 29.25 44. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 98-99
43. आवश्यकनियुक्ति गाथा 93 45. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1.9.33, 2.21.1