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चर्तुथ अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान
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जिनभद्रगणि ने कहा है कि संयुक्त और असंयुक्त वर्णों के अनन्त संयोग होते हैं और प्रत्येक संयोग के स्व और पर पर्याय अनन्त होते हैं । श्रुतग्रंथों का अनुसरण करने वाले जितने वचन हैं, वे सब श्रुतज्ञान हैं। वे श्रुतानुसारी मतिविशेष के ही भेद हैं और वे अनन्त हैं। 3
2. आवश्यकनिर्युक्ति में श्रुतज्ञान के अक्षरश्रुत आदि चौदह भेदों का उल्लेख है, यथा 1. अक्षरश्रुत 2. अनक्षरश्रुत 3. संज्ञीश्रुत 4. असंज्ञीश्रुत 5. सम्यक् श्रुत 6 मिथ्याश्रुत 7. सादिश्रुत 8. अनादिश्रुत 9. सपर्यवसितश्रुत 10. अपर्यवसितश्रुत 11. गमिकश्रुत 12. अगमिकश्रुत 13. अंगप्रविष्टश्रुत 14. अंगबाह्यश्रुत। नंदीचूर्णि जिनदासगणि कहते है कि श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम की अपेक्षा श्रुतज्ञान एक प्रकार का ही है। अक्षर आदि भावों की अपेक्षा वह चौदह प्रकार का है। 5 बाद वाले हरिभद्रादि आचार्यों ने भी चौदह भेदों का ही उल्लेख किया है।" निर्युक्ति में अनक्षर श्रुत के ही उदाहरण मिलते हैं, जबकि बाकी के भेदों के नामोल्लेख मात्र हैं । अनक्षर के सिवाय श्रुतभेदों का विचार नंदीसूत्र, विशेषावश्यकभाष्य आदि में किया गया है।
3. षट्खण्डागम के अनुसार
षट्खण्डागम में श्रुतज्ञानावरण की संख्यात प्रकृतियाँ हैं अर्थात् जितने अक्षर हैं और जितने अक्षर के संयोग हैं, उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्म की प्रकृतियाँ (भेद) हैं। 7 धवलाटीकाकार ने अक्षरों की संख्या का विस्तार से वर्णन किया है। मुख्य रूप से श्रुतज्ञान के बीस भेद किये हैं। पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोगद्वार, अनुयोगद्वारसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व और पूर्वसमास । यहाँ शंका होती है कि पूर्व में तो श्रुतज्ञान के संख्यात भेद बताये और पुनः श्रुत ज्ञान के भेदों की निश्चित संख्या बीस बता दी, इस भिन्नता का क्या कारण है। इसके समाधान में धवलाटीकाकार कहते हैं कि श्रुतज्ञान की जो संख्यात प्रकृतियाँ बताई हैं, वह अक्षरनिमित्तक भेदों की अपेक्षा से है, जबकि ये बीस भेद क्षयोपशम की अपेक्षा से आवरण के भेद हैं।
षट्खंडागम में श्रुत के 41 पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख है, यथा प्रावचन, प्रावचनीय, प्रवचनार्थ, गतियों में मार्गणता, आत्मा, परम्परा लब्धि, अनुत्तर, प्रवचन, प्रवचनी, प्रवचनाद्धा, प्रवचनसंनिकर्ष, नयविधि, नयान्तरविधि, भंगविधि, भंगविधिविशेष, पृच्छाविधि, पृच्छाविधिविशेष, तत्त्व, भूत, भव्य, भविष्यत्, अवितथ, अविहत, वेद, न्याय्य, शुद्ध, सम्यग्दृष्टि, हेतुवाद, नयवाद, प्रवरवाद, मार्गवाद, श्रुतवाद, परवाद, लौकिकवाद, लोकोत्तरीयवाद, अग्रय, मार्ग, यथानुमार्ग, पूर्व, यथानुपूर्व और पूर्वातिपूर्व । संभवतया षट्खंडागम काल में श्रुत के लिए उपर्युक्त शब्दों का प्रयोग होता हो, क्योंकि ये शब्द श्रुत की विशेषता के सूचक है। जिनकी स्पष्टता धवलाटीकाकर ने की है।
तुलना - आवश्यकनिर्युक्ति और षट्खण्डागम में श्रुतज्ञान के भेदों का विचार दो अपेक्षाओं से हुआ है - 1. अक्षर की अपेक्षा से - अक्षर की अपेक्षा से दोनों परम्पराओं में प्राप्त विचारणा में भेद है, निर्युक्तिकार अक्षर की अपेक्षा असंख्यात भेद मानते हैं, जबकि षट्खण्डागम में संख्यात भेद माने गये हैं । 1 53. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 444-448, 451
54. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 18-19, विशेषावश्यकभाष्य 449, नंदीसूत्र पृ. 146
55. सुतावरणखयोवसमत्तणतो एगविहं पि तं अक्खरादिभावे पडुच्च जाव अंगबाहिरं ति चोद्दसविधं भण्णति । - नन्दीचूर्णि पृ. 70-71
56. हारिभद्रीय नंदीवृत्ति, पृ. 71, मलयगिरि पृ. 187, जैनतर्कभाषा पृ. 22
57. षट्खण्डागम, पु. 13 सू. 5.5.44-45, पृ. 247
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58. षट्खण्डागम पु. 13 पृ. 249-260
60. षट्खंडागम, पु. 13, सू. 5.5.50 पृ. 280
59. षट्खण्डागम, पु. 13 सू. 5.5.47, पृ. 260
61. आवश्यकनियुक्ति गाथा 17, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 444, षट्खण्डागम, पु. 13, सू. 5.5.45, पृ. 247