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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
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नहीं अथवा सूत्र से उपलब्ध पदार्थों का अनुसरण करते हुए सूत्र से भावित बुद्धि से पदार्थों को जानने के लिए अवग्रहादि होता है, इसलिए वह मति ही है। क्षेत्र में ऊर्ध्व, अधो, तिर्यक् रूप तीनों लोकों के विषय को जानने में तो सर्वक्षेत्र आ जाता है। काल से अतीत, अनागत, सर्वकाल हो
और भाव में सर्वभाव-क्षयोपशम, उपशमादि अथवा वर्णादि 20 में एक गुण से अनन्तगुण होते हैं। इसलिए सर्वभाव जानना चाहिए।
भगवतीसूत्र में 'दव्वओ णं अभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्व दव्वाइं जाणइ, पासइ527 जबकि नंदीसूत्र के पाठ में 'आएसेणं सव्वाइं दव्वाइं जाणइ ण पासइ' अर्थात् भगवती में तो 'पासइ' और नंदीसूत्र में 'ण पासइ' क्रिया का प्रयोग किया है। भगवतीसूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि28 इसको वाचनान्तर मानते हुए इस विसंगति का समन्वय करते हुए कहते हैं कि यद्यपि आदेश पद का श्रुत अर्थ करके श्रुतनिश्रित मतिज्ञान से मतिज्ञानी अवाय और धारणा की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को जानता है और अवग्रह तथा ईहा की अपेक्षा से देखता है, क्योंकि अवाय और धारणा ज्ञान के बोधक हैं और अवग्रह व ईहा ये दोनों दर्शन के बोधक है। 29 अतः ‘पासइ' क्रिया का प्रयोग सही है। लेकिन नंदीसूत्र के टीकाकारों के अनुसार 'ण पासइ' के प्रयोग कारण यह है कि यहां प्रयुक्त आदेश का अर्थ है दो प्रकार का है - सामान्य और विशेष। उनमें द्रव्यजाति इस सामान्य प्रकार से धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों को मतिज्ञानी जानता है और धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश इस विशेष रूप से भी जानता है, किन्तु धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों को नहीं देखता है, केवल योग्य देश में स्थित रूपी पदार्थों को देखता है,530 इसलिए दोनों क्रियाओं का प्रयोग सही है। इसी प्रकार क्षेत्र, काल और भाव में प्रयुक्त सर्व शब्द का अर्थ समझना चाहिए।
क्षेत्र से - आभिनिबोधिक ज्ञानी, आदेश से सभी क्षेत्र को जानते हैं, देखते नहीं अर्थात् जो आभिनिबोधिक ज्ञानी श्रुतज्ञान से जानते हैं, वे श्रुतनिश्रित मतिज्ञान से सर्व लोकाकाश और सर्व अलोकाकाश रूप सब क्षेत्र को, जातिरूप सामान्य प्रकार से जानते हैं। कुछ विशेष प्रकार से भी जानते हैं। जैसे आकाश स्कंध, आकाश देश, आकाश प्रदेश आदि। परन्तु सर्व-विशेष प्रकार से नहीं देखते हैं। वैसा मात्र केवली ही देख सकते हैं।
काल से - आभिनिबोधिक ज्ञानी, आदेश से समस्त काल को जानते हैं, देखते नहीं अर्थात् जो आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञान से जानते हैं, वे उस श्रुत से निश्रित मतिज्ञान से, सर्व भूतकाल, सर्व वर्तमान काल और सर्व भविष्यकाल रूप सभी काल को जातिरूप सामान्य प्रकार से जानते हैं। समय, आवलिका, प्राण, स्तोक, लव, मुहूर्त आदि कुछ विशेष प्रकार से भी जानते हैं, पर सर्व विशेष प्रकार से देखते नहीं हैं।
__ भाव से - आभिनिबोधिक ज्ञानी, आदेश से सभी भावों को जानते हैं, देखते नहीं अर्थात् जो आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञान जानते हैं, वे उस श्रुत से निश्रित मतिज्ञान से सभी भावों को जातिरूप सामान्य प्रकार से जानते हैं। जैसे-भाव छह हैं- 1. औदयिक, 2. औपशमिक, 527. भगवतीसूत्र, शतक 8, उद्देशक 2 528. भगवती वृत्ति, श. 8, उ.2 पृ. 380-381 529. अभयदेवसूरि ने यह उल्लेख जिनभद्रगणि के आधार से ही किया है। 'नाणमवायधिईओ दंसणमिटें जहोग्गहेहाओ'
- विशेषावश्यकभाष्य गाथा 536 530. मलयगिरि नंदीवृत्ति, पृ. 184