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________________ विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन 3. क्षायिक, 4. क्षायोपशमिक, 5. पारिणामिक और 6. सान्निपातिक । कुछ विशेष प्रकार से भी जानते हैं। जैसे औदयिक और क्षायिक भाव आठ कर्मों का होता है। औपशमिक भाव मात्र एक मोहनीय कर्म का ही होता है। क्षायोपशमिक भाव चार घाति कर्मों का होता है। पारिणामिक भाव छहों द्रव्यों में होता है । सान्निपातिक भाव मात्र जीव द्रव्य में ही होता है, क्योंकि अजीव में पारिणामिक के सिवाय कोई भाव नहीं होता, इत्यादि, परन्तु सर्व विशेष प्रकार से नहीं देखते। जो आभिनिबोधिक ज्ञानी हैं, वे आगमिक श्रुतज्ञान से निश्रित मतिज्ञान द्वारा कुछ क्षेत्र और कालवर्ती ज्ञान से अभिन्न आत्म- द्रव्य को और घड़ा, कपड़ा आदि कुछ रूपी पुद्गल द्रव्य को ही जानते हैं तथा आत्म द्रव्य के ज्ञान गुण की कुछ पर्यायों को और घड़ा, कपड़ा आदि के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि गुण की कुछ पर्यायों को ही जानते हैं । सत्पदपरुपणादि नौ अनुयोग द्वारा मतिज्ञान की प्ररूपणा जिनभद्रगणि ने मतिज्ञान के आगमिक दृष्टिकोण को महत्त्व देते हुए सत्पदप्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शना, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व इन नौ द्वारों के माध्यम से मतिज्ञान का उल्लेख किया है। [200] 1. सत्पदप्ररूपणा विद्यमान अर्थ की प्ररूपणा ( विचारणा ) करना सत्पदप्ररूपणा कहलाता है। यहाँ ' मतिज्ञान' यह जो सत्पद है, उसका गति आदि 20 द्वारों के माध्यम से उल्लेख (प्ररूपण) किया है, जिनको आवश्यकनिर्युक्ति और विशेषावश्यकभाष्य में निम्न प्रकार से कहा है - गइ इंदिए य काय जोए वेए कसाय लेसा य ।। सम्मत्त-णाण-दंसण-संजममुवयोग - माहारे 11409।। भासग-परित्त-पज्जत्त-सुहुम- सण्णी य भव्व चरिमे य ।। पुव्व पडिवन्नए या पडिवज्जंते य मग्गणया । 14101531 अर्थात् गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयम, उपयोग, आहार, भाषक, प्रत्येक, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव्य और चरिम इन द्वारों में पहले प्राप्त और वर्तमान की अपेक्षा वर्णन किया है। इस वर्णन में प्रमुख रूप से चार शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनका अर्थ इस प्रकार से हैं - 1. पूर्वप्रतिपन्न (भूतकाल का ज्ञान ) 2. प्रतिपद्यमान ( वर्तमान के एक समय का ज्ञान) 3. नियमा ( नियम से मिलना ) 4. भजना (कदाचित् हो सकता है कदाचित् नहीं भी हो सकता है)। पूर्वप्रतिपन्न में पूर्व में प्राप्त मतिज्ञान की विवक्षा है और प्रतिपद्यमान में वर्तमान के एक समय में नवीन मतिज्ञान उत्पन्न हो रहा है अथवा नहीं, इसकी विवक्षा है | 32 उल्लेखनीय है कि मतिज्ञान सम्यग्दृष्टि जीवों में होता है, मिथ्यादृष्टि एकेन्द्रियादि जीवों में मति - अज्ञान होता है। सिद्धों में मात्र केवलज्ञान होता है, अतः उनमें भी मतिज्ञान नहीं माना गया है। प्रस्तुत द्वारों में जो विवेचना की गई है, वह मात्र मतिज्ञान की अपेक्षा से की गई है, मति अज्ञान की अपेक्षा से नहीं । दूसरी बात यह है कि निम्नांकित द्वारों में मतिज्ञान का जो कथन किया है, वह जीव समूह की अपेक्षा से किया गया है, एक जीव की अपेक्षा से नहीं । 531. आवश्यकनिर्युक्ति गाथा 14-15 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 409-410 532. आभिनिबोधिकप्रतिपत्तिप्रथमये प्रतिपद्यमानका उच्चन्ते, द्वितीयादिसमयेषु तु पूर्वप्रतिपन्ना इत्यनयोर्विशेषः । मलधारी हेमचन्द्र, बृहद्वृत्ति, पृ. 199
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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