SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [198] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन मतिज्ञान के द्वारा द्रव्यादि चतुष्क का ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान का विषय संक्षेप से चार प्रकार का है। वह इस प्रकार है-१. द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से, और ४. भाव से 22 द्रव्य से - आभिनिबोधिक ज्ञानी, आदेश से सर्व द्रव्यों को जानता है, देखता नहीं है अर्थात् जो आभिनिबोधिक ज्ञानी हैं, वे आदेश से अर्थात् जातिस्मरणादि से या गुरुदेव के वचन श्रवण, शास्त्र-पठन आदि से आगमिक श्रुतज्ञान जानते हैं, वे उस श्रुतज्ञान से सम्बन्धित-श्रुतनिश्रित मतिज्ञान से छहों द्रव्यों को जाति रूप सामान्य प्रकार से जानते हैं। जैसे द्रव्य छह हैं - १. धर्म, २. अधर्म, ३. आकाश, ४. जीव, ५. पुद्गल और ६. काल। कोई इन छह द्रव्यों को विशेष प्रकार से भी जानते हैं। जैसे-१. धर्म, २. अधर्म, ३. आकाश-ये तीन द्रव्य, द्रव्य से एक-एक है। शेष तीन द्रव्य, द्रव्य से अनन्त-अनन्त हैं। धर्म, अधर्म और आकाश, ये तीन स्कन्ध से एक-एक हैं तथा जीव और पुद्गल-ये दो स्कंध से अनन्त हैं। धर्म और अधर्म-ये दोनों प्रदेश से असंख्य-असंख्य प्रदेशी हैं। आकाश अनन्त प्रदेशी है। लोकाकाश असंख्य प्रदेशी है, अलोक-आकाश अनन्त प्रदेशी है। जीव प्रत्येक असंख्य प्रदेशी है। पुद्गल अप्रदेशी, संख्यात प्रदेशी, असंख्य प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी है, काल अप्रदेशी है, इत्यादि। परन्तु केवली के समान वे सम्पूर्ण को विशेष प्रकार से नहीं देखते हैं। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण का मन्तव्य - मतिज्ञानी द्रव्य की अपेक्षा सामान्य प्रकार से जीव और पुद्गलों के गति आश्रय के कारणभूत धर्मास्तिकाय आदि सब द्रव्यों को जानता है, उनकी सब पर्यायों को नहीं जानता है, कुछ अंशों में विशेष रूप से भी जानता है, जैसेकि धर्मास्तिकाय गतिसहायक द्रव्य है। वह अमूर्त और लोकाकाशप्रमाण है। किन्तु धर्मास्तिकाय आदि को सर्वात्मना नहीं देखता। लेकिन उचित देश में अवस्थित घट आदि को देखता भी है। इसी प्रकार क्षेत्र से वह लोकालोक क्षेत्र, काल से अतीत-वर्तमान-अनागत काल तथा भाव से उदय आदि पांच भाव को जानता है। 23 उपर्युक्त वर्णन में मतिज्ञानी सर्व द्रव्य को जानते और देखते हैं, ऐसा उल्लेख किया है। तो यहाँ सर्व शब्द आदेश की अपेक्षा से प्रयुक्त हुआ है। आदेश सामान्य और विशेष दोनों प्रकार से प्रयुक्त होता है। 24 मतिज्ञानी सूत्रादेश के द्वारा धर्मास्तिकाय आदि सर्व द्रव्यों को जानता है, यह कथन द्रव्य सामान्य की अपेक्षा से है। सूक्ष्म परिणत द्रव्यों को वह नहीं जानता, यह कथन विशेष आदेश की अपेक्षा से है। मतिज्ञानी सर्व द्रव्य से नहीं देखता है, यह वर्णन भी सापेक्ष है। नंदीचूर्णिकार इस सम्बन्ध में कहते हैं कि यह निषेध सामान्य आदेश की अपेक्षा से है, विशेष आदेश की अपेक्षा से वह देखता है, जैसे चक्षु से रूप को देखता है।25। प्रश्न - उपर्युक्त वर्णन में जो सूत्र के आदेश से द्रव्यों का ज्ञान उत्पन्न होता है, वह तो श्रुतज्ञान हुआ, किन्तु यहाँ विषय मतिज्ञान का चल रहा है। उत्तर - जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के अनुसार यह श्रुत है, लेकिन श्रुतज्ञान नहीं है। क्योंकि श्रुतनिश्रित को भी मतिज्ञान प्रतिपादित किया गया है। 26 अतः यह मतिज्ञान रूप ही है, श्रुतज्ञान रूप 522. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 201 523. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 403-405 524. नंदीचूर्णि पृ. 68, हारिभद्रीया, पृ. 68, मलयगिरि पृ.184-185 525. नंदीचूर्णि पृ. 68 526. आएसो त्ति व सुत्तं, सुउवलद्धेसु तस्स मइणाणं। पसरइ तब्भावणया विणा वि सुत्ताणुसारेण।-विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 405
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy