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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यक भाष्य में मतिज्ञान
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कतिपय आचार्यों का ऐसा मानना कि अनिःसृत और अनुक्त में बाहर नहीं निकले हुए पुद्गलों का ज्ञान होने से यह भेद चार प्राप्यकारी इन्द्रियों में संभव नहीं है । विद्यानंद ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि चींटी को दूर से ही गुड़ का ज्ञान होता है, यह ज्ञान प्राप्यकारी इन्द्रिय से ही सम्भव है तथा अनिःसृत और अनुक्त ज्ञान श्रुतज्ञानापेक्षी है। श्रुतज्ञान के श्रोत्रेन्द्रिय लब्ध्यक्षर आदि छह भेद हैं इनसे उक्त छह इन्द्रियों से दोनों ज्ञान संभव हैं । 13
11-12. ध्रुव - अध्रुव- इन दोनों के तीन अर्थ प्राप्त होते हैं -
1. पूज्यपाद, अकलंक, मलधारी हेमचन्द्रसूरि " यशोविजयजी आदि के अनुसार प्रथम समय में जैसा ज्ञान हुआ है, वैसा ही ज्ञान द्वितीयादि समय में होना ध्रुव है तथा नियम से कभी बहु, कभी अबहु, कभी बहुविध, और कभी एकविध आदि से होने वाला ज्ञान अध्रुव है। 2. जिनभद्रगणि और मलयगिरि के वचनानुसार जैसे पहले बहु- बहुविध आदि का ज्ञान किया, वैसे सर्वदा (निश्चित) जानना ध्रुव कहलाता है सामान्य रूप से कभी बहु, कभी अबहु, कभी बहुविध, और कभी एकविध आदि रूप से जानना अध्रुव है 1 515
हरिभद्र ने पूज्यपाद और जिनभद्रगणि के द्वारा किये गये अर्थ का समन्वय करते हुए कहा है कि स्थिर बोध ध्रुव और अस्थिर बोध अध्रुव है 1516
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3. वीरसेनाचार्य कहते हैं कि नित्यत्वविशिष्ट स्तंभ आदि का स्थिर ज्ञान ध्रुव है उत्पत्ति और विनाश विशिष्ट अर्थात् बिजली और दीपक की लौ आदि का ज्ञान अध्रुव है तथा उत्पाद, ध्रौव्य और व्ययुक्त विशिष्ट वस्तु का ज्ञान भी अध्रुव है, 517 क्योंकि वह ज्ञान ध्रुव से भिन्न है।
पूज्यपाद के अनुसार धारणा गृहीत अर्थ का अविस्मरण होने से वह ध्रुव से भिन्न है।
जिनभद्रगणि के अनुसार बहु आदि भेद व्यावहारिक अर्थावग्रह के होते हैं, नैश्चयिक अर्थावग्रह के नहीं, क्योंकि नैश्चयिक अवग्रह का काल एक समय का होने से उसमें ये भेद संभव नहीं है। मलयगिरि और यशोविजय भी ऐसा ही उल्लेख करते हैं जबकि बृहद्वृत्तिकार मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने कारण में कार्य का उपचार करके नैश्चयिक अवग्रह में भी बहु आदि भेदों को स्वीकार किया है। 519 अकलंक के अनुसार व्यंजनावग्रह में बहु आदि भेद अव्यक्त रूप से रहते हैं, अर्थावग्रह में ये भेद स्पष्ट घटित होते हैं
बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्रुव में विशिष्ट क्षयोपशम. उपयोग की एकाग्रता, अभ्यस्तता ये असाधारण कारण हैं तथा अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निश्रित, संदिग्ध और अध्रुव इन से होने वाले ज्ञान में क्षयोपशम की मन्दता, उपयोग की विक्षिप्तता, अनभ्यस्तता, ये अंतरंग असाधारण कारण हैं।
पूज्यपाद ने ध्रुवावग्रह और धारणा में अन्तर बताते हुए कहा है कि ध्रुवावग्रह में कम ज्यादा भाव होते हैं जबकि धारणा में गृहीत अर्थ नहीं भूलने के कारण वह ज्ञान धारणा कहलाता है
513. श्लोकवार्तिक 1.16.38-39
514. सर्वार्थसिद्धि 1.16, राजवार्तिक 1.16.13-14, मलधारी हेमचन्द्र टीका गाथा 309
515. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 309, मलयगिरि पृ. 183
516. तत्त्वार्थ हारिभद्रीय वृत्ति 1.16 517. धवला पु. 13, पृ. 239, श्लोकवार्तिक 1.16.40 518. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 287,332, मलयगिरि पृ. 182, जैनतर्कभाषा पृ. 20 519. कारणे कार्यधर्मोपरचारान् पुनर्निश्चयावग्रहेऽपि युज्यते। विशेषावश्यकभाष्य, गावा 288 520. राजवार्तिक 1.16
521. सर्वार्थसिद्धि 1.16 पृ. 81