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[194] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहवृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
इनका स्वरूप निम्न प्रकार से है - ___ 1. बहु - एक काल में एक साथ बहुत पदार्थ जानना बहु है। पूज्यपाद के अनुसार बहु शब्द संख्यावाची (एक, दो. बहुत) और विपुलतावाची (बहुत भात, बहुत दाल) है। दोनो का यहाँ ग्रहण किया गया है। जिनभद्रगणि के अनुसार एक साथ शंख, मृदंग आदि अनेक वाद्य यंत्र बजते हैं तो उसमें से यह शब्द शंख का है, यह मुंदग का है, इस प्रकार अलग-अलग पहचान करना बहु है। अकलंक ने पूज्यपाद का अनुसरण करते हुए कहा है कि बहु भेद से बौद्ध जो ज्ञान को प्रत्यर्थवशवर्ति (एक समय में एक ही पदार्थ को विषय करने वाला) मानते हैं, उसका खण्डन होता है। अकलंक ने इस चर्चा का विस्तार से वर्णन किया है, धवलाटीका में भी अकलंक का ही अनुसरण किया गया है।92
2. अल्प (अबहु)- अल्प ग्रहण को अल्प कहते हैं अर्थात् किसी एक ही विषय या एक ही पर्याय को स्वल्पमात्रा में जानना। विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार श्रोता को अल्प क्षयोपशम के कारण शंख, मृदंग आदि अनेक वाद्य यंत्र बजते हैं तो सामान्य रूप से उनकी आवाज का ज्ञान होना अल्प है अर्थात् एक काल में एक पदार्थ जानना। अर्थ की समानता होते हुए भी 'अल्प'493 'अबहु'494 और 'एक' (धवलाटीका) इन तीन शब्दों का उपयोग होता है, लेकिन अर्थ भेद नहीं है।
3. बहुविध -पूज्यपाद और अकलंक के अनुसार विध शब्द प्रकारवाची है। जिनभद्रगणि मन्तव्यानुसार एक काल में एक या अनेक पदार्थों को अनेक गुण और पर्यायों से जानना बहुविध भेद है। जैसे शंख, भेरी आदि के एक-एक शब्द के स्निग्धत्व, मधुरत्व आदि अनेक धर्मों को एक साथ ग्रहण करना। धवला टीका में जातिगत बहुत संख्या विशिष्ट अर्थों का ज्ञान बहुविधज्ञान है।195 पूज्यपाद ने बहु और बहुविध में अन्तर बताये हुए कहा है कि बहु तो एक प्रकार और बहुविध अनेक प्रकार रूप है।
4. एकविध (अबहुविध) - जिनभद्रगणि के मतानुसार अनेक वस्तुओं में प्रत्येक की एकएक पर्याय का ज्ञान होना एकविध है। जैसे शंख, मृदंग आदि अनेक वाद्य यंत्र की तीव्र, मधुर आदि एक दो पर्यायों का ज्ञान होना एकविध है अर्थात् एक काल में एक या अनेक पदार्थों के एक गुण पर्याय को जानना। जिनभद्रगणि, मलयगिरि आदि के अनुसार एक पर्याय का ज्ञान होता है, जबकि विद्यानंद के अनुसार एक-दो पर्याय का ज्ञान होता है।97 वीरसेन कहते हैं कि एक जातिविषयक एकविध है। 'एकविध' और 'एक' समान नहीं है, जैसे कि जाति और व्यक्ति एक नहीं होने से उनके विषय करने वाले भी एक समान नहीं हो सकते हैं। अल्प, बहु, एकविध, बहुविध ये चार भेद उत्तरोत्तर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर हैं।
5. क्षिप्र - भाष्यकार के कथनानुसार एक काल में एक या अनेक पदार्थों के एक या अनेक गुण पर्यायों को शीघ्र जानना अर्थात् शीघ्र ग्रहण करना। स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा अन्धकार में भी व्यक्ति या वस्तु को पहचान लेना।
6. अक्षिप्र (चिर)- क्षयोपशम की मन्दता से या विक्षिप्त उपयोग से किसी भी इन्द्रिय या मन के विषय को अनभ्यस्तावस्था में विलम्ब से जानना अर्थात् अधिक समय लगना। धवला में 492. सर्वाथसिद्धि सूत्र 1.16, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 308, राजवार्तिक 1.16.1-8, धवला पु. 13, सू. 5.5.35 पृ. 235 493. तत्वार्थभाष्य 1.16, सर्वार्थसिद्ध 1.16, राजवार्तिक 1.16 494. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 310, मलयगिरि पृ. 183 जैनतर्कभाषा पृ. 21 495. सर्वाथसिद्धि सूत्र 1.16, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 308, राजवार्तिक 1.16.9, धवला पु. 13, सू. 5.5.35 पृ. 237 496. सर्वार्थसिद्धि 1.16 497. श्लोकवार्तिक पृ. 1.16.4522. धवला पु, 13 पृ. 237