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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
[193] कभी पूर्वज्ञात वस्तु के सामने आने पर 'यह वह है' ऐसी धारणा भी होती है, अतः आपने जो क्रम से चारों की प्रवृत्ति होने का कथन किया है, वह संगत प्रतीत नहीं होता है।
समाधान - जिनभद्रगणि इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि आपका कथन युक्त नहीं है, क्योंकि अवग्रहादि के दुर्लक्ष्य होने से, जैसे कि कोई जवान व्यक्ति सैकड़ों कमलपत्रों को सूई आदि से बींधता हुआ यह विचार करता है कि मैंने एक साथ सौ पत्तों को छेद दिया है, लेकिन उसका यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि प्रत्येक पत्ते के बींधने का समय अलग अलग है। किन्तु वह काल अतिसूक्ष्म होने से अलग-अलग रूप से प्रतीत नहीं होता है अर्थात् जो वस्तु अत्यन्त परिचित होती है, उसमें पहले दर्शन होता है, फिर अवग्रहादि ज्ञान क्रम से होते हैं लेकिन यह सूक्ष्म प्रक्रिया होने से ज्ञाता जान नहीं पाता है। ज्ञाता को लगता है कि उसे सीधा अवाय या धारणा का ज्ञान हुआ है। चाहे कोई भी वस्तु ज्ञाता के कितनी ही परिचित हो, लेकिन जब भी उस वस्तुका ज्ञान होगा तो वह दर्शन, अवग्रहादि के क्रम से होता हुआ अवाय या धारणा तक पहुँचता है। जैसे एक-दूसरे के ऊपर कमल के सौ पत्ते रखकर उनमें नुकीला भाला घुसेड़ा जाए तो वे सब पत्ते क्रम से ही छिदेंगे पर यह मालूम नहीं पड़ पाता कि भाला कब पहले पत्ते में घुसा, कब उससे बाहर निकला, कब दूसरे पत्ते में घुसा आदि। जिसका कारण शीघ्रता ही है। जब भाले का वेग इतना तीव्र हो सकता है तो सूक्ष्मतर ज्ञान का वेग उससे भी अधिक तीव्र क्यों न होगा? अतः अवग्रह आदि का काल भी अतिसूक्ष्म होता है जो कि प्रतीत नहीं होता है, लेकिन अवग्रहादि क्रम से ही सम्पन्न होते हैं।88 जिनदासगणी, मलयगिरि, यशोविजयजी ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है।189 अवग्रहादि के बहु-बहुविध आदि भेद
जिनभद्रगणि ने श्रुतनिश्रित मति के अन्तर्गत अवग्रह आदि के बहु-अबहु, बहुविध-अबहुविध, क्षिप्रअक्षिप्र, अनिश्रित-निश्रित, निश्चित-अनिश्चित, ध्रुव-अध्रुव इन बारह भेदों का उल्लेख किया है।३००
इन बारह भेदों का सर्वप्रथम नामोल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में मिलता है। लेकिन इनको परिभाषित पूज्यपाद ने किया है। उक्त बारह भेदों में से कुछ भेदों के नाम तथा अर्थ में भी कालक्रम से परिवर्तन हुआ है। जिनभद्रगणि ने इनका अर्थ स्पष्ट करते हुए आवश्यकता अनुसार उदाहरण भी दिये हैं तथा हरिभद्र, अकलंक ने सोदाहरण इनकी व्याख्या की है। तत्त्वार्थभाष्य, सर्वार्थसिद्धि, विशेषावश्यकभाष्य और धवलाटीका में बहु आदि के नामों में प्राप्त भिन्नता का उल्लेख निम्न सारणी द्वारा किया गया है।91 उमास्वाति पूज्यपाद जिनभद्रगणि
वीरसेनाचार्य बहु-अल्प बहु-अल्प बहु-अबहु
बहु-एक बहुविध-एकविध बहुविध-एकविध बहुविध-अबहुविध बहुविध-एकविध क्षिप्र-चिर
क्षिप्र-अक्षिप्र क्षिप्र-अक्षिप्र क्षिप्र-अक्षिप्र निश्रित-अनिश्रित अनिःसृत-निःसृत अनिश्रित-निश्रित अनिःसृत-नि:सृत असंदिग्ध-संदिग्ध अनुक्त-उक्त निश्चित-अनिश्चित अनुक्त-उक्त ध्रुव-अध्रुव ध्रुव-अध्रुव ध्रुव-अध्रुव
ध्रुव-अध्रुव 488. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 298-299 489. नंदीचूर्णि पृ. 64, हारिभद्रीय पृ. 66, मलयगिरि पृ. 183, जैनतर्कभाषा पृ. 20 490. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 307 491. सर्वार्थसिद्ध 1.16, विशेषावश्यकभाष्य गाथा 307, राजवार्तिक 1.16.15, षट्खण्डागम पु. 13, सू. 5.5.34, पृ. 235-236,
मलयगिरि पृ. 183, जैनतर्कभाषा पृ. 21