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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
अवग्रह आदि का निश्चित क्रम और परस्पर भिन्नता
जीव का लक्षण उपयोग है। उसी उपयोग की भिन्न-भिन्न अवस्थाएं होती हैं और वही अवस्थाएं यहाँ दर्शन, अवग्रह, ईहा आदि भिन्न-भिन्न नामों से बताई गई हैं। इन अवस्थाओं से उपयोग की उत्पत्ति और उत्तरोत्तर विकास का क्रम जाना जाता है। जैसे प्रत्येक मनुष्य शिशु, बालक, कुमार, युवक, प्रौढ़ आदि अवस्थाओं को क्रम-पूर्वक ही प्राप्त करता है, उसी प्रकार उपयोग भी दर्शन, अवग्रह आदि अवस्थाओं को क्रम से पार करता हुआ ही धारणा की अवस्था प्राप्त करता है। शिशु आदि अवस्थाओं में मनुष्य एक ही है, फिर भी परिणमन के भेद से अवस्थाएं भिन्न-भिन्न कहलाती हैं, उसी प्रकार उपयोग एक होने पर भी परिणमन (विकास) की दृष्टि से अवग्रह आदि भिन्न-भिन्न कहलाते हैं। जैन परिभाषा में इसी को द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अभेद और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा भेद कहते हैं।
अवग्रहादि चारों का निश्चित क्रम है, इसका उल्लेख भाष्यकार ने निम्न प्रकार से किया है -
अवग्रह आदि चारों का क्रम नियमित है। इनका उत्क्रम या व्यतिक्रम होने पर अथवा एक का भी अभाव होने पर वस्तु के स्वभाव का अवबोध नहीं होता। अवग्रह से अगृहीत वस्तु में ईहा प्रवृत्त नहीं होती। बिना ईहा (अविचारित) के अवाय (निश्चय) नहीं होता। अनिश्चित अथवा अज्ञात अर्थ की धारणा नहीं होती। इसलिए अवग्रह आदि क्रमशः होते हैं। अवग्रहादि चार उत्तरोत्तर वस्तु की विशेष पर्याय को ग्रहण करते हैं, अतः ये परस्पर भिन्न-भिन्न होते हैं। ये चारों युगपत् (समकालीन) नहीं होते, क्योंकि इनका उत्पत्ति समय अलग-अलग है। इनका व्युत्क्रम (या उत्क्रम) भी नहीं होता। ज्ञेय का स्वभाव ऐसा ही है, जो केवल अवग्रह, केवल ईहा, केवल अवाय या केवल धारणा का विषय नहीं होता है।86
इसी प्रकार असमस्त रूप से भी उत्पन्न होने के कारण अवग्रहादि भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले मालूम होते हैं, वस्तु की नवीन-नवीन पर्याय को प्रकाशित करते हैं और क्रम से उत्पन्न होते हैं, अतः अवग्रह आदि भिन्न-भिन्न हैं। इसके लिए वादिदेवसूरि ने प्रमाणनयतत्त्वालोक में तीन हेतु दिये हैं -
1. कभी मात्र दर्शन ही होता है, कभी दर्शन और अवग्रह दो ही उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार कभी तीन, कभी चार ज्ञान भी उत्पन्न होते हैं। इससे प्रतीत होता है कि दर्शन, अवग्रह आदि भिन्नभिन्न हैं। यदि ये अभिन्न होते तो एक साथ पांचों ज्ञान उत्पन्न होते अथवा एक भी न होता।
2. पदार्थ की नई-नई पर्याय को प्रकाशित करने के कारण भी दर्शन आदि भिन्न-भिन्न सिद्ध होते हैं। तात्पर्य यह है कि सर्वप्रथम दर्शन पदार्थ में रहने वाले महा सामान्य को जानता है, फिर अवग्रह अवान्तर सामान्य को जानता है, ईहा विशेष की ओर झुकता है, अवाय विशेष का निश्चय कर देता है और धारणा में यह निश्चय दृढ़ बन जाता है। इस प्रकार प्रत्येक ज्ञान नवीन-नवीन धर्म को जानता है और इससे, उनमें भेद सिद्ध होता है।
3. पहले दर्शन फिर अवग्रह आदि इस प्रकार क्रम से ही ये ज्ञान उत्पन्न होते हैं, अत: भिन्नभिन्न हैं। इस प्रकार वादिदेवसूरि ने भाष्यकार का ही अनुकरण किया है।487
शंका - कभी परिचित (अभ्यस्त) विषय में जैसे कि कभी (देखने सम्बन्धी) 'यह पुरुष है' इस प्रकार अवग्रह और ईहा को छोड़कर सीधा अपाय होना भी प्रतीत होता है, इसी प्रकार कभी
486. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 295-297 487. प्रमाणनयतत्त्वालोक, पृष्ठ 19-20