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तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान
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उदाहरण देते हुए कहा है कि जिस प्रकार नूतन सकोरे को प्राप्त हुआ जल उसे धीर-धीरे गीला करता है, उसी प्रकार पदार्थ को धीरे-धीरे जानने वाला प्रत्यय अक्षिप्र प्रत्यय है।98 कूटस्थनित्यवादी क्षिप्र को और क्षणभंगवादी अक्षिप्र को स्वीकार नहीं करते हैं। लेकिन वस्तु में उत्पाद, ध्रौव्य, नाश तीनों धर्म होते हैं, इसलिए दोनों भेद युक्ति संगत हैं। इसके लिए 'चिर'500 और 'अक्षिप्र'501 इन दो शब्दों का प्रयोग किया है। लेकिन अर्थ भेद नहीं है।
7. अनिश्रित - उमास्वाति, जिनभद्र, मलयगिरि आदि आचार्य इसका उल्लेख किया है। विशेषावश्यकभाष्य के अनुसार बिना किसी हेतु (लिंग) के, पर धर्मों से मिश्र वस्तु को ग्रहण नहीं करे, लेकिन यथावस्थित रूप से जाने अर्थात् बिना किसी निमित्त के शब्द समूह की पर्याय और गुण से उसके स्वरूप को जानना। संकेत आदि की सहायता के बिना उन्हें स्वरूप से जानना। गायादि को गायादि के रूप में ही ग्रहण करना अर्थात् जो अविपरीत ज्ञान है, वह अनिश्रित है। व्यक्ति के मस्तिष्क में ऐसी सूझ-बूझ पैदा होना जो कि किसी शास्त्र या पुस्तक में भी लिखी हुई मिल जाए।
इस प्रकार जिनभद्रगणि ने इसको दो प्रकार से परिभाषित किया है - 1. अन्यलिंग की मदद के बिना स्वरूप से होने वाला ज्ञान अनिश्रित है। जैसेकि मेघ शब्द की अपेक्षा के अलावा भेरी शब्द का ज्ञान। 2. परमधर्म से अनिश्रित ज्ञान अनिश्रित है। जैसेकि गाय को गाय रूप में जानना 502
8. निश्रित - जिनभद्रगणि ने इसके दो अर्थ किये हैं -1. अन्यलिंग अर्थात् किसी हेतु, युक्ति, निमित्त, लिंग आदि के सहयोग से होने वाला ज्ञान निश्रित है। जैसेकि ध्वजा से देव का ज्ञान 2. परधर्मों से मिश्रित (विपर्यय) ज्ञान निश्रित है। जैसे अश्वादि के पर धर्मों से मिश्रत, गाय आदि वस्तु को ग्रहण करते समय निश्रित ज्ञान होता है अर्थात् गाय को अश्वरूप ग्रहण किया जाता है, जो विपरीत ज्ञान है। यह निश्रित कहलाता है। एक ने शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ही उपयोग की एकाग्रता से अकस्मात् चन्द्र दर्शन कर लिए, दूसरे ने किसी बाह्य निमित्त से चन्द्रदर्शन किए, इन में पहला, पहली कोटिक में और दूसरा, दूसरी कोटी में समाविष्ट हो जाता है।503
अनिश्रित-निश्रित के उपर्युक्त दो अर्थों में से यशोविजयजी ने प्रथम अर्थ ही उल्लेख किया है।
निश्रित-अनिश्रित के लिए मिश्रित-अमिश्रित और निःसृत-अनिःसृत का भी प्रयोग हुआ है। इन शब्दों का अर्थ निम्न प्रकार से है।
निःसृत और अनिःसृत - पूज्यपाद, अकलंक, धवलाटीकाकार आदि आचार्यों ने इन का प्रयोग किया है।504 पूज्यपाद के अनुसार जब तक वस्तु का पूरा भाग प्रकट नहीं होता है, तब तक वह अनिःसृत होता है अर्थात् सभी पुद्गलों के बाहर निकलने से पहले ही वस्तु का ज्ञान होना अनिःसृत है। अकलंक कहते हैं कि पदार्थ के एक अवयव को देखने मात्र से ही उस समस्त पदार्थ के अवग्रह का आदि ज्ञान हो जाना नि:सृत है। इसके लिए उदाहरण दिया है कि तालाब आदि में समस्त शरीर के डूब जाने पर भी एक सूंढ मात्र अवयव को देखकर हाथी के विषय में अवग्रहादि ज्ञान होते हैं।05 वीरसेनाचार्य ने अनुसंधान और प्रत्यभिज्ञान को अनिःसृत कहा है। जैसेकि घड़े के नीचे का भाग देखकर ही घड़े का ज्ञान होता है। गवय गाय के समान होता है, इस प्रकार उपमा के साथ उपमेय 498. धवला पु, 13 पृ. 237
499. श्लोकवार्तिक 1.16.34-36 500. तत्त्वार्थभाष्य 1.16, सर्वार्थसिद्धि 1.16, राजावार्तिक 1.16 501. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 309, धवला पु, 13 पृ.237, श्लोकवार्तिक 1.16.34, मलयगिरि पृ. 183, जैनतर्कभाषा पृ. 21 502. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 308-310, मलयगिरि पृ. 183 503. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 308-310, मलयगिरि पृ. 183 504. सर्वार्थसिद्धि 1.16, राजवार्तिक 1.16.11, धवला, पु. 13, पृ. 238 505. सर्वार्थसिद्धि 1.16, राजवार्तिक 1.16.11