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विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन
अवग्रह आदि का काल
नंदीसत्र के अनसार - १. अवग्रह (अर्थावग्रह) का काल 'एक समय' है। २. ईहा का काल 'अन्तर्मुहूर्त' है। ३. अवाय का काल भी 'अन्तर्मुहूर्त' है। ४. वासनारूप धारणा का काल एक भव आश्रित संख्यात वर्ष की आयुष्य वालों के लिए संख्यात काल और असंख्यात वर्ष की आयुष्य वालों के लिए असंख्यात काल है।73
जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार - नैश्चयिक अर्थावग्रह का काल एक समय, व्यंजनावग्रह तथा व्यावहारिक अर्थावग्रह का काल अन्तर्मुहूर्त, ईहा और अपाय का काल अन्तर्मुहूर्त, अविच्युति
और स्मृति रूप धारणा का काल भी अन्तर्मुहूर्त, वासना रूप धारणा का काल संख्यात, असंख्यात काल तक का है। 74 हरिभद्रसूरि नैश्चयिक अर्थावग्रह का कालमान एक समय और सांव्यवहारिक अर्थावग्रह का समय अन्तर्मुहूर्त मानते हैं। 75 ___अवग्रह - नंदीसूत्र में अवग्रह के लिए "असंखेज समय पविट्ठा पुग्गला गहणमागच्छन्ति।" तथा 'उग्गह इक्क समयं' दोनों प्रकार के पाठ मिलते हैं। इनमें प्रथम पाठ व्यंजनावग्रह के लिए है तथा द्वितीय पाठ अर्थावग्रह के लिए है। जीव को जब चार इन्द्रियों (चक्षु रहित) द्वारा पदार्थ का सामान्य ज्ञान (दर्शन) होता है, तो पहले असंख्याता समय तक व्यंजन अवग्रह, फिर एक समय का अर्थावग्रह फिर ईहा आदि होती है। इसी प्रकार आवश्यकनियुक्ति के अनुसार अवग्रह का काल एक समय है। 76 परंतु अवग्रह के अंत में अनेक समय व्यतीत होते हैं, इसकी संगति बैठाने के लिए आचार्यों ने अवग्रह के दो भेद करके परंपरा से प्राप्त (नियुक्तिगत) कालमान के एक समय को नैश्चयिक अर्थावग्रह, बाकी के काल (अंतर्मुहूर्त) को व्यंजनावग्रह रूप स्वीकार किया है।
विशेषावश्यकभाष्य और नंदीसूत्र के टीकाकारों ने व्यंजनावग्रह के जघन्य और उत्कृष्ट काल का उल्लेख किया है। जैसेकि व्यंजनावग्रह का जघन्य काल - आवलिका का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट काल - संख्यात आवलिका है। संख्यात आवलिका का काल भी पृथक्त्व अर्थात् 2 से 9 श्वासोच्छ्वास जितना है। हरिभद्रसूरि स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि वैसे तो अंतिम समय में स्पृष्ट पुद्गल ही ज्ञान के उत्पादक बनते हैं और शेष स्पृष्ट पुद्गल सहयोगी होते हैं, इसलिए असंख्यात समय के स्पृष्ट या प्रविष्ट पुद्गलों का ज्ञान होता है। मलयगिरि ने भी इसका अनुमोदन किया है। ऐसा ही उल्लेख पं. सुखलालजी ने कर्मग्रंथ भाग एक की चौथी गाथा के विवेचन में किया है। परन्तु उपर्युक्त वर्णित जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति में असंख्यात गुणा का अन्तर हो जाता है, जो कि उचित नहीं लगता है, क्योंकि प्रज्ञापना सूत्र के पन्द्रहवें पद में पांच इन्द्रियों के उपयोग काल में विशेषाधिक का ही अन्तर बताया है।
व्यंजनावग्रह में असंख्य समय क्यों लगते हैं और अर्थावग्रह एक समय में क्यों होता है'-यह समझाने के लिये नंदीसूत्र में वर्णित मल्लक के दृष्टांत में जैसे शकोरा भर जाने के पश्चात् उसके 473. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 191 474. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 333 475. हारिभद्रीय, नंदीवृत्ति पृ. 69 476. आवश्यकनियुक्ति गाथा 4 477. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 333, मलयिगिरि पृ. 169 478. नंदीचूर्णि पृ. 63, हारिभद्रीय पृ. 65, मलयगिरि पृ. 179